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सरकार की लक्ष्मण रेखा के अंदर न्यायपालिका

Judiciary within the Lakshman Rekha of the government

सतन कुमार जैन

सरकार ने न्यायपालिका के लिए एक लक्ष्मण रेखा खींच दी है। न्यायपालिका भी सरकार द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा से बाहर निकलने का हौसला नहीं बना पा रही है। संविधान ने विधायिका एवं कार्यपालिका के लिए लक्ष्मण रेखा तय की थी। वहीं न्यायपालिका को नागरिकों के मौलिक अधिकारों और संविधान की रक्षा के करने का दायित्व देकर ‎‎विधा‎यिका और कार्यपा‎लिका पर अंकुश लगाने की श‎‎‎क्तियां न्यायपा‎लिका को दी हैं। संविधान के अनुरुप ‎विधा‎यिका की लक्ष्मण रेखा न्यायपालिका को तय करना थी। न्यायपालिका के कमजोर होने से सरकार ने ही न्यायपालिका को ही लक्ष्मण रेखा के अंदर रहने ‎‎विवश कर दिया है।

पिछले कुछ वर्षों से न्यायपालिका में एक नया चलन देखने को मिल रहा है। सुनवाई के दौरान अथवा विभिन्न कार्यक्रमों में न्यायपालिका के शीर्ष न्यायाधीश बहुत सारे उपदेश सार्वजनिक रूप से देते हैं। हाईकोर्ट या सुप्रीमकोर्ट के निर्णयों में उपदेश के अनुरुप मंशा नहीं दिखती है। ऐसी स्थिति में आम-आदमी के मन में यह धारणा बनने लगी है, कि न्यायपालिका "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" की तरह उपदेश देकर अपना पल्ला झाड़ लेती है। इससे लोगों में निराशा उत्पन्न हो रही है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकीलों ने भी सार्वजनिक रूप से न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर सार्वजनिक रूप से आपत्ति और नाराजी जाहिर की है।

फेक न्यूज़ और गलत सूचनाओं का दौर चल रहा है। मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों भी समय-समय पर चिंता जाहिर की है। न्यायाधीशों द्वारा सरकार, पत्रकारों और आम-आदमियों को फेक न्यूज़ और गलत सूचनाओं से बचने की सलाह दी जाती है। किंतु फेक न्यूज के मामले में न्यायालयें चुप्पी साध लेती है। पत्रकारों पर सही सूचनाओं को प्रका‎शित करने पर सरकारों, पुलिस और जांच एजेंसियों द्वारा प्रताड़ित किया जाता है। ऐसे मामलों में न्यायपालिका मी‎डिया की सुरक्षा के स्थान पर चुप्पी साध लेती है। इससे पत्रकारों में डर और भय का वातावरण बना है। नूपुर शर्मा मामले की सुनवाई करते समय सुप्रीमकोर्ट ने जो चिंता कोर्ट रुप में व्यक्त की थी। सुनवाई के दौरान जो बातें कही थी। उस पर कोई अमल नहीं हुआ। उल्टे न्यायाधीस के खिलाफ जबरदस्त फेक न्यूज़ ट्रोल हुई। सुप्रीमकोर्ट ने उस पर भी कोई कार्यवाही नहीं की। उल्टे नूपुर शर्मा वाले मामले में कुछ समय के बाद राहत देते हुए, फैसले में ऐसा कुछ नहीं लिखा, जिससे न्यायपालिका की साख बढ़ती। फेक न्यूज पर रोक लगती।

संविधान ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व न्यायपालिका को दिया है। संविधान ने विधायिका एवं कार्यपालिका के किसी भी कानून अथवा निर्णय पर सुनवाई करने एवं नागरिकों के मौलिक अधिकार को बनाए रखने का दायित्व न्यायपालिका को देकर सर्वोच्चता प्रदान की है। पिछले 70 वर्षों में न्यायपालिका ने कई बड़े ऐतिहासिक फैसले दिए हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गवाही देने के लिए न्यायालय में पेश होना पड़ा। प्रधानमंत्री रहते हुए उनको अयोग्य करार ‎दिया। कई ऐसे निर्णय दिए हैं, जिसमें सरकार ने मौलिक अधिकारों को अप्रत्यक्ष रूप से बाधित करने के कानून बनाये थे। उन कानूनों को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया था। हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के आदेशों से लोकतांत्रिक व्यवस्था को काफी मजबूती मिली थी। सरकारें और अधिकारी अपने कर्तव्यों के प्रति न्यायपालिका के डर से ठीक तरीके से काम करते थे।

हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट द्वारा दिए गए, आदेशों का पालन सरकार और उनके अधिकारी ‎पिछले कई वर्षों से नहीं कर रहे हैं। सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट में मौलिक अधिकारों तक नागरिक स्वतंत्रता से संबंधित जो याचिकाएं सुनवाई के लिए जाती है। उन पर सुनवाई तत्काल नहीं होती है। सरकार ऐसे मामलों को टालती है। कोर्ट में सरकारी पक्ष को प्राथमिकता दी जाने लगी है। जनहित याचिकाओं पर हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट ने जुर्माना लगाना शुरू कर दिया है। ऐसी स्थिति में संवैधानिक हितों को लेकर जो स्वयं सेवी तथा मानव अधिकार से जुड़े संगठन याचिकाएं दायर करते थे। उन्होंने भी अब न्यायालय की शरण में जाना बंद कर दिया है। याचिकाकर्ताओं के ऊपर लाखों रुपए का जुर्माना लगाने की जो नई प्रथा न्यायपालिका में शुरू की गई है । उससे लोगों में न्यायपालिका के प्रति जो आस्था थी, वह धीरे-धीरे होने लगी है। अब न्यायालयों में जाने से आम नागरिक डरने लगा है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में सक्षम लोगों की याचिकाओं पर तुरंत सुनवाई हो जाती है। उन पर तुरंत निर्णय भी हो जाते हैं । लेकिन संवैधानिक एवं जनहित के मामलों में विशेष रुप से जो सरकार की कार्यवाही के खिलाफ होते हैं। उन पर सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट में समय पर सुनवाई नहीं होना या उन्हें लम्बे समय के लिए टाल दिया जाता है। इससे न्यायपालिका की साख और विश्वास दोनों ही कम हो रहे है। कई याचिकाएं संवैधानिक मामलों की कई वर्षों से लंबित हैं। लाखों लोग पीड़ित हैं, लेकिन अभी तक इनकी सुनवाई नहीं हुई। सरकार से शपथ-पत्र के स्थान पर बंद लिफाफे में जानकारी लेकर दूसरे पक्ष को सुने बिना सरकार को मदद करने की जो नई प्रक्रिया न्यायपालिका में शुरू हुई है। उसने भी न्यायपालिका की साख को कम किया है। सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की टिप्पणी सुनने में आती हैं। बाद में उनका उल्लेख आदेश में कहीं नहीं होता है। ‎टिप्पणी के अनुरुप फैसले नहीं होन से न्यायपालिका की साख कम हो रही है। सरकार और उसके अधिकारियों पर न्यायपालिका का भय लगभग खत्म हो चुका है। नूपुर शर्मा वाले मामले में जिस तरीके से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को ट्रोल किया गया, न्यायपालिका चुपचाप तमाशा देखती रही। यह स्थिति लोकतंत्र को कमजोर कर रही है। न्याय व्यवस्था के लिए भी यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। हाल ही में फेक न्यूज़ को लेकर न्यायमूर्ति चंद्रचूण की यह टिप्पणी कि फेक न्यूज और गलत सूचनाओं को पत्रकार उजागर करें। जो पत्रकार समाचार में उजागर करते हैं, वह जेलों की सैर करते हैं। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मामले कई महीनों लंबित रहते हैं। हाईकोर्ट एवं सुप्रीमकोर्ट स्वयं संज्ञान लेकर आदेश जारी कर सकते है। जो अब न्यायालयों द्वारा नहीं किये जा रहे है। संविधान ने न्यायपालिका को सर्वोच्च अधिकार दिए हैं। न्यायपालिका किसी भी कानून और कार्यवाही पर संज्ञान लेते हुए निर्णय देने के लिए स्वतंत्र है। राममंदिर के मामले में सुप्रीमकोर्ट ने जो निर्णय दिया, उसे भारत की जनता ने इसलिए स्वीकार किया, कि वह सुप्रीमकोर्ट का निर्णय है। पिछले कुछ वर्षों में बिना संसद की मंजूरी के जो कानून और हजारों ‎नियम मनी बिल के रुप में प्रचलन में आए हैं। न्यायमूर्ति खानविलकर साहब की पीठ ने ईडी के अ‎धिकारों को लेकर जो निर्णय दिया है। उससे न्यायपालिका पर ‎विधि ‎विशेषज्ञों का विश्वास कम हुआ है। विधि विशेषज्ञों के अनुसार सुप्रीमकोर्ट को ईडी को मिले अधिकारों की समीक्षा करनी थी। नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा तथा जांच एजेंसी को आरोप प्रमाणित करने का दायित्व होता है। सुप्रीम कोर्ट के नये आदेश के बाद आरोपी जेल में बंद रहकर ‎बिना ‎किसी जानकारी के कैसे अपने-आपको निर्दोष साबित करेगा। सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय के बाद मौलिक अधिकारों की रक्षा को लेकर जो विश्वास नागरिकों के बीच न्यायपा‎लिका के प्र‎ति था। वह पूरी तरह समाप्त हो चला है। विधि विशेषज्ञ भी उक्त निर्णय पर अपनी चिंतायें सार्वजनिक रुप से व्यक्त कर रहे है। 


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