दुनियाभर में वैसे तो कई बेहतरीन शायर हुए हैं लेकिन मिर्जा गालिब को उर्दू के सबसे बेहतरीन शायर के रूप में याद किया जाता है। हालांकि अपनी शायरी में उन्होंने फारसी का बहुत ज्यादा प्रयोग किया, इसलिए भले ही वह आम आदमी की समझ से दूर रही लेकिन फिर भी मिर्जा गालिब आम आदमी के दिल के करीब रहे। वह ऐसे महान शायर थे, जिन्होंने अपनी बेहतरीन शायरी के जरिये लोगों को जिंदगी के मायने समझाए। आप भले ही जिंदगी के किसी भी मोड़ पर खड़े हों, पारम्परिक भक्ति और सौन्दर्य रस से भरपूर उनकी शायरी हमेशा आपके साथ खड़ी मिलेगी। 27 दिसम्बर 1797 को आगरा के काला महल में जन्मे मिर्जा गालिब का वास्तविक नाम मिर्जा असदउल्लाह बेग खान था और गालिब उनका उपनाम था, इसीलिए अपनी शायरी के साथ वे ‘मिर्जा गालिब’ नाम से लोकप्रिय हुए। उनके पिता का नाम मिर्जा अब्दुल्ला बेग तथा माता का नाम इज्जत-उत-निसा बेगम था। जब वे महज पांच वर्ष के थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। महज 13 साल की उम्र में मिर्जा गालिब का निकाह नवाब इलाही बख्श खान की बेटी उमराव बेगम के साथ हुआ और गालिब की कुल सात संतानें हुई मगर अफसोस कि उनमें से कोई भी जीवित नहीं रही। जीवन का यह गम उनकी शायरी में भी घुलता रहा। उनकी इस शायरी में उनका दर्द स्पष्ट झलकता था, ‘बेवजह नहीं रोता इश्क में कोई गालिब, जिसे खुद से बढ़कर चाहो वो रुलाता जरूर है।’
मिर्जा गालिब फारसी और उर्दू के कितने बड़े हस्ताक्षर थे, यह इसी से आसानी से समझा जा सकता है कि सोहराब मोदी ने 1954 में उनकी शख्सियत पर बॉलीवुड फिल्म ‘मिर्जा गालिब’ बनाई, छोटे पर्दे पर भी गुलजार ने 1988 में ‘मिर्जा गालिब’ नामक टीवी सीरियल बनाया, जो काफी प्रसिद्ध रहा। ‘मिर्जा गालिब’ फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ था, जिसमें भारत भूषण ने मिर्जा गालिब का किरदार निभाया था। ‘मिर्जा गालिब’ टीवी सीरियल में मिर्जा गालिब का किरदार नसीरूद्दीन शाह ने निभाया था। पाकिस्तान में भी मिर्जा गालिब पर 1961 में एक फिल्म बनाई जा चुकी हैं। इसके अलावा मिर्जा गालिब की 220वीं जयंती पर वर्ष 2017 में गूगल द्वारा उन्हें डूडल से श्रद्धांजलि भी दी गई थी। जिंदगी के हर पहलू पर उनका नजरिया, उनका अंदाजे बयां, उनकी कलम और कलाम, उनकी शख्सियत उन्हें बेजोड़ बनाता है। मोहब्बत, बेवफाई, रुसवाई और जिंदगी से लेकर जन्नत तक पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा है।
गालिब मूलतः फारसी के शायर थे लेकिन उर्दू में भी उन्होंने भरपूर लिखा, इसीलिए कहा जाता है कि उनके जैसा शायर दुनिया में संभवतः दोबारा नहीं होगा। ‘इश्क ने ‘गालिब’ निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के’, ‘दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है, आखिर इस दर्द की दवा क्या है’, ‘मैं नादान था जो वफा को तलाश करता रहा गालिब, यह न सोचा के एक दिन अपनी सांस भी बेवफा हो जाएगी’, ‘तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिला के दिखा, नहीं तो दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख’, ‘इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा, लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं’, ‘वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं! कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं’ जैसी बेहतरीन शायरी के लिए पहचाने जाने वाले मिर्जा गालिब ने एक से बढ़कर एक शेरो-शायरियां, रुबाई, कसीदा और किताबें लिखी।
हालांकि मिर्जा गालिब की शिक्षा-दीक्षा के बारे में कोई पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती लेकिन यह उल्लेख अवश्य मिलता है कि उन्होंने महज 11 वर्ष की आयु में ही ईरान से दिल्ली आए एक मुस्लिम के साथ रहकर फारसी और उर्दू सिखाना शुरू कर दिया था। 13 साल ही उम्र में वह अपनी बेगम और भाई मिर्जा यूसुफ खान के साथ दिल्ली चले आए. जहां उन्हें पता चला कि आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के बेटे फक्र-उद-दिन मिर्जा को शेर-शायरियां सिखाने के लिए एक शायर की जरूरत हैं। उसके बाद गालिब बहादुरशाह जफर के बड़े बेटे को शेरो-शायरी की गहराईयों की तालीम देने लगे। चूंकि बादशाह भी उर्दू शेरो-शायरी के बड़े प्रशंसक होने के साथ-साथ कवि भी थे, इसलिए वह भी गालिब की शेर-शायरियां पढ़ने में रूचि लेते थे और कुछ समय बीतने पर गालिब उनके दरबार के खास दरबारियों में शामिल हो गए। बादशाह के दरबारी कवि रहे मिर्जा गालिब मुगल शासन के दौरान गजल गायक, कवि और शायर हुआ करते थे। बहादुरशाह जफर द्वितीय द्वारा उन्हें दरबार में रहते हुए 1850 में दबीर-उल-मुल्क तथा नज़्म-उद-दौला जैसे खिताबों से नवाजा गया और बाद में उन्हें मिर्जा नोशा का खिताब भी मिला। तभी से उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि दो सदियों बाद भी उनकी शायरी आज भी न केवल हर उम्र के लोगों के बीच लोकप्रिय है, वहीं उनकी लिखी गजलें तथा शायरियां युवाओं तथा प्रेमियों को भी अपनी ओर आकर्षित करती हैं।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में मुगल सेना को ब्रिटिश साम्राज्य से पराजय मिलने के बाद बहादुरशाह को रंगून भेज दिया गया और मुगल साम्राज्य खत्म हो गया। इससे मिर्जा गालिब को मिलने वाली आय बंद हो गई और उनकी जिंदगी पूरी तरह बदल गई। जब उनके पास खाने के भी पैसे नहीं बचे तो वह छोटे-छोटे समारोहों में अपनी शायरियों से लोगों को प्रभावित करने लगे और अपने जीवन की बेहतरीन शायरियां उन्होंने इसी दौरान लिखी। इसीलिए उन्हें ‘आम लोगों का शायर’ भी कहा जाता है। एक-एक कर सात बच्चों की मौत के बाद शराब पीना उनकी रोजाना की जिंदगी का हिस्सा बन गया था। वह अपनी पूरी पेंशन शराब पर ही खर्च दिया करते थे और उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी फक्कड़पन में ही गुजारी। बच्चों की मौत से दुखी गालिब को शराब के साथ जुआ खेलने की भी आदत लग गई थी और ये दोनों आदतें आखिरी सांस तक उनके साथ बरकरार रही। जुआ खेलने और खिलाने के आरोप में उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी थी। अपने जीवन के अंतिम साल उन्होंने गुमनामी में काटे लेकिन जीवन के अंतिम क्षण तक वे हाजिरजवाब बने रहे। 15 फरवरी 1869 को मिर्जा गालिब ने अंतिम सांस ली और उसके करीब एक साल बाद उनकी पत्नी उमराव बेगम की भी मौत हो गई। दोनों की कब्र दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में बनाई गई। बहरहाल, मरने के बाद भी यह महान फनकार अपनी शायरी, नगमों और कविताओं में जिंदा है। फारसी शब्दों के हिन्दी में जुड़ाव तथा फारसी कविता को हिन्दुस्तानी भाषा में पेश करने का श्रेय मिर्जा गालिब को ही जाता है।