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नए वर्ष की चुनौतियाँ और सम्भावनाएँ

New Year"s Challenges and Prospects

जब हम भारत और उसके कोटि-कोटि जनों के लिए सोचते हैं तो मन में भारत भूमि पर हज़ारों वर्षों की आर्य सभ्यता और संस्कृति की बहु आयामी यात्रा कौंध उठती है। विभिन्न सांस्कृतिक प्रभावों के संघात के बीच ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्य का अविरल प्रवाह राष्ट्रीय गौरव का बोध कराता है। साथ ही भारत का भाव हमें उस दाय को सँभालने के लिए भी प्रेरित करता है जिसके हम वारिस हैं। निकट अतीत का स्वाधीनता संग्राम देशवासियों को राष्ट्र को आगे ले जाने के दायित्व का भी स्मरण कराता है। स्वाधीनता आश्वस्त करती है पर हमारे आचरण को आयोजित करने के लिए कर्तव्य-मार्ग का निर्देश भी देती है ताकि वह सुरक्षित बनी रहे। इस तरह अतीत कभी व्यतीत नहीं होता बल्कि हमको रचता रहता है।

आज भारत विकास के मार्ग पर एक यात्रा पर अग्रसर है। भारत के लिए अगले साल में क्या कुछ होने वाला है इस सवाल पर विचार इससे बात से भी जुड़ा है कि हम भारत के लिए क्या चाहते हैं और उभरती परिस्थितियों में क्या कुछ सम्भव है। इस सिलसिले में यह भी याद रखना ज़रूरी है कि आज की दुनिया में परस्परनिर्भरता एक अनिवार्य नियति बनती जा रही है। हम सब ने देखा कि (प्रचलित सूचना के मुताबिक़) चीन के वुहान नगर से निकले कोरोना वाइरस और कोविड-19 यूरोप, अमेरिका और भारत समेत एशिया के तमाम देशों में फैल कर लगभग पूरे विश्व को एक ऐसी महामारी की चपेट में ले लिया जिससे लाखों लोगों के जीवन की हानि हुई और भारी आर्थिक नुकसान हुआ। ऐसे ही यूक्रेन और रूस के बीच चल रहा युद्ध प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पूरे संसार में आर्थिक कठिनाई बढ़ा रहा है।

इस बीच भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय पहल की, अपनी बात रखी और उसकी साख में वृद्धि हुई। नए साल में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और जी-20 समूह की अध्यक्षता के साथ भारत की वैश्विक उपस्थिति निश्चित ही फलदायी होगी। पड़ोसी देशों के हालात संतोषजनक नहीं है और बहुत जल्द सुधार की आशा भी नहीं दिखती। अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों में राजनैतिक अस्थिरता और आर्थिक संकट गहराते दिख रहे है। चीन का रुख़ भी सहयोग की जगह मुश्किलें पैदा करने वाला ही रहा है। पड़ोसी देशों की यह स्थिति भारत के लिए सजग और सतर्क राजनय और सामरिक तत्पारता की ज़रूरत को रेखांकित करती है। इसे देखते हुए भारत के सुरक्षा-प्रयास वरीयता के साथ शुरू हैं और स्वदेशी तकनीकों और उत्पादों पर ध्यान दिया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर आतंकी हलचल कम होती नहीं दिखती और चीन तथा पाकिस्तान की हरकतों का अंदेशा देखते हुए देश को सामरिक शक्ति को और सुदृढ़ रखना होगा।

भारत का आधुनिक लोकतंत्र पचहत्तर सालों की यात्रा के बाद अब अंग्रेज़ी राज के उपनिवेश की विकट छाया से मुक्ति की कोशिश में लगा है। उसकी आहट शिक्षा की संरचना, विषयवस्तु और प्रक्रिया में बदलाव में दिखने लगी है। परिवर्तन की अस्त-व्यस्तताओँ के साथ शैक्षिक ढाँचे को पुनर्व्यवस्थित करने के लिए राज्यों और केंद्र में कई स्तरों पर गहन तैयारी की ज़रूरत है। अध्यापक-प्रशिक्षण, पाठ्य-विषय, शिक्षण-माध्यम, पुस्तक-निर्माण, शैक्षिक-मूल्यांकन और शैक्षिक-संरचना आदि के मोर्चों पर आगे बढ़ने के लिए आर्थिक निवेश ज़रूरी होगा ताकि ज़रूरी अवसंरचना स्थापित और संचालित हो सके। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के साथ जुड़ाव को आगे बढ़ाना और मातृभाषा में पढ़ाई के साथ डिजिटलीकरण की दिशा में सावधानी से आगे बढ़ना होगा। आज ‘हाइब्रिड’ प्रणाली तेज़ी से लोकप्रिय हो रही है। आनलाइन शिक्षा पूरक और विकल्प दोनों ही रूपों में अपनाई जा रही है। इसके चलते विद्यार्थी और अध्यापक दोनों के कौशलों और दक्षताओं को पुनर्परिभाषित करने की ज़रूरत पड़ रही है। इन दृष्टियों से यह साल बड़ा ही निर्णायक सिद्ध होगा।

भारत अभी भी एक कृषि प्रधान देश है और गावों की परिस्थितियाँ देश के लिए से महत्वपूर्ण हैं और उनकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए । खाद्यान्न उत्पादन में विविधता की दृष्टि से मोटे अनाज, तिलहन तथा दलहन को बढ़ावा देने के उपक्रम और तेज होंगे। किसानों के पिछले आंदोलन की दुखद स्मृति अभी भी बनी हुई है। खाद, बीज, सिंचाई की व्यवस्था और बाज़ार से जुड़ी नीतियों पर संवेदना के साथ विचार ज़रूरी है। आशा है बिना भूले उन मुद्दों के समाधान की राह निकलेगी। पेस्टीसाइड के घातक प्रभावों को देखते हुए देसी बीज और जैविक खेती को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से दूध, फलों और सब्ज़ियों के उत्पादन में वृद्धि जरूरी है।

स्वास्थ्य की चुनौती विकराल हो रही है। पर्यावरण प्रदूषण, भोज्य पदार्थ में मिलावट, मंहगी दवाएँ, अस्पतालों की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं का बाज़ारीकरण स्वास्थ्य को आम आदमी की पहुँच से दूर कर रहा है। स्वास्थ्यसेवा के क्षेत्र में नैतिकता एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है। इस बीच एलोपैथिक औषधि को उपलब्ध कराने के लिए जेनरिक औषधि की विशेष दुकानें खुली हैं वहां उचित दाम पर अनेक दवाएँ मिल रही हैं, पर वह नाकाफी है। आयुष की व्यवस्था देसी चिकित्सा पर बल देने के लिए प्रयास रात की गई है पर समग्र स्वास्थ्य ( मानसिक और शारीरिक दोनों ) की देखरेख अभी भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। टेली मेंडिसिन की सेवाओं का विस्तार तेजी से किया जाना चाहिए। देश की जनसंख्या को देखते हुए चिकित्सकों की संख्या अपर्याप्त है। इसलिए स्तरीय स्वास्थ्य-शिक्षा के विस्तार पर वरीयता के साथ काम करना जरूरी होगा। कोविड की लड़ाई में देश की उपलब्धि सराहनीय थी और उससे उबर कर देश का आर्थिक विकास पटरी पर आ रहा है। कोविड की नई दस्तक पर सजगता जरूरी होगी।

मीडिया का कल्पनातीत विस्तार, खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया का जिस तरह हुआ है उसने लोगों की मानसिकता, आचरण और वैचारिक परिपक्वता सबको हिला दिया है। उसकी प्रभाव-क्षमता रोचक सामग्री, तीव्र गति और अंत:क्रियात्मकता (इंटेरेक्टिव होने) के कारण बहुत बढ़ गई है। संवाद और संचार की दुनिया पर इस तरह का कब्जा जमा कर समाज का मन-मस्तिष्क कब्जे में लेने की यह कोशिश न केवल नए सामाजिक वर्ग और भेद बना रही है बल्कि मनुष्यता का भी मशीनीकरण करती जा रही है। उसका विवेक, उसकी सामाजिकता और आत्मबोध सबको समेटते और ध्वस्त करते हुए यह प्रौद्योगिकी निजी और सामाजिक रिश्ते-नातों को खंडित करती जा रही है। इसके दुरुपयोग के चलते मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य को सुरक्षित रखना कठिन हो रहा है। इसे लेकर व्यापक सामाजिक बहस और इसको नियमित करने की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है।

न्याय का क्षेत्र एक दुखती रग है जिधर अभी तक व्यवस्थित रूप से ध्यान नहीं दिया जा सका है। न्यायाधीशों की कमी और करोड़ों की संख्या में प्रतीक्षारत मुक़दमे ऐसे घोर तथ्य हैं जिनकी उपेक्षा घातक हो रही है। साथ ही उसमें विलम्ब होने के कारण सभी को असंतोष है। न्याय व्यवस्था की औपनिवेशक आधारभूमि से अभी पूरी तरह से निजात नहीं मिल सकी है। उच्चतम न्यायालय की सक्रियता से जरूर कई महत्वपूर्ण पहलें हुई हैं, फ़ैसले लिए गए हैं और केंद्र सरकार ने भी कई सुधार के काम हाथ में लिए हैं परंतु सस्ता, शीघ्र और संतोषप्रद न्याय पाना अभी भी टेढ़ी खीर है। इसी तरह भ्रष्टाचारमुक्त, पारदर्शी शासन या सुशासन स्थापित करना अभी भी अधूरा सपना है। बढ़ते आर्थिक अपराध, पद और अधिकार का दुरुपयोग, संस्थाओं की स्वायत्तता का नाश और राजनीति में अनपढ़, धनी, वंशवाद और अपराधी लोगों का बढ़ता वर्चस्व ऐसी स्थितियों को बना रहे हैं जो आम जनों के मन में राज्य व्यवस्था के प्रति संदेह पैदा करती हैं।

बाजार, वैश्वीकरण और व्यक्ति के निजी सुख की बेतहाशा बढ़ती चाहत ने सामाजिकता को हाशिए पर भेजने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। राजनैतिक दलों में वैचारिकता और अनुशासन की गहराती कमी चिंताजनक होती जा रही है। यह दुखद है जाति, आरक्षण, भाषा, शिक्षा और धर्म से जुड़े मुद्दे अक्सर अल्पकालिक राजनैतिक स्वार्थ के चलते सद्भाव के साथ नहीं सुलझाये जाते। आज देश-सेवा के मूल्य को पुनः प्रतिष्ठित करना अत्यंत आवश्यक हो गया है। निजी लाभ और समाज के कल्याण के बीच द्वन्द्व की जगह उनकी परस्परपूरकता को पहचानने की ज़रूरत है। अमृत-काल हमसे पुण्यकारी संकल्प की माँग करता है और यह अवसर देता है कि अपने मनोदेश में हम भारत को स्थान दें। भारत की समृद्धि से ही सभी समृद्ध होंगे। हमारी भारतीयता का प्रमाण भी यही है कि हम भारत को क्या दे सकते हैं। यदि भारत हमारा है तो हमें भी भारत का होना चाहिए।


(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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