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‘रेवडिय़ां’ या जन-कल्याण

 मुफ्त रेवडिय़ों’ की चर्चा पुरानी है। यह विषयगत व्याख्या का मुद्दा है। किसी के लिए जो ‘रेवड़ी’ है, तो दूसरे पक्ष के लिए वह जन-कल्याण हो सकता है। इसकी कोई सर्वसम्मत परिभाषा नहीं है, लिहाजा सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप महत्त्वपूर्ण है। शीर्ष अदालत का मानना है कि मुफ्त और तर्कहीन रेवडिय़ों तथा सरकारी खजाने पर बढ़ते बोझ के बीच संतुलन होना चाहिए। जन-कल्याण भी जरूरी है, लेकिन अर्थव्यवस्था भी डूबनी नहीं चाहिए। सर्वोच्च अदालत का आग्रह है कि इस विषय पर ‘श्वेत पत्र’ लाया जाना चाहिए और एक विशेष समिति का गठन भी किया जाना चाहिए। वह समिति सभी पक्षों को सुने और फिर निष्पक्ष आकलन करे कि किसे मुफ्त मदद की ज़रूरत है और दूसरे पक्ष की आपत्तियां क्या हैं। इस संदर्भ में चुनाव आयोग ने सुप्रीम अदालत में पूरक हलफनामा देते हुए कहा है कि आयोग एक संवैधानिक संस्था है, लिहाजा उसका किसी समिति का हिस्सा बनना उचित नहीं होगा। चुनाव आयोग ने अपना पक्ष अदालत के समक्ष रखकर अपनी भूमिका निभाई है।

 केंद्र सरकार में किसी अन्य दल की सत्ता है, तो राज्यों में विपक्ष की सरकारें हैं। चुनाव आयोग के लिए दोनों का महत्त्व समान है, क्योंकि उसकी भूमिका तटस्थ, निष्पक्ष, निर्भीक चुनाव कराने की है। वह किसी तोहफे या योजना को ‘रेवड़ी’ अथवा जन-कल्याण कैसे करार दे सकता है? संविधान ने उसे यह जनादेश ही नहीं दिया। आयोग विभिन्न दलों के चुनाव घोषणा-पत्रों पर भी न तो सवाल उठा सकता है और न ही कोई पाबंदी थोप सकता है। अभी तो यह देखना भी शेष है कि वित्त आयोग, नीति आयोग और राज्य सरकारों के वित्त सचिव आदि भी प्रस्तावित समिति का हिस्सा बनना चाहेंगे अथवा नहीं। सर्वोच्च अदालत ने ‘रेवडिय़ों’ पर और राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने पर कोई कानून तय करने से इंकार कर दिया है, क्योंकि यह उसका अधिकार-क्षेत्र नहीं है। इस पर विधायिका मंथन कर सकती है, लेकिन अदालत ने ‘रेवडिय़ों’ को गंभीर मुद्दा माना है। उसका यह भी मानना है कि देश की आर्थिक स्थिति खस्ता हो सकती है, क्योंकि पहले से ही देश पर कुल कजऱ् बहुत है।

 बहरहाल ‘रेवडिय़ों’ का मुद्दा नए सिरे से इसलिए भी उठा है, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि कोई मुफ्त पेट्रोल-डीजल देने की घोषणा भी कर सकता है। इससे देश के युवाओं के अधिकार छिन सकते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी राज्यों की वित्तीय स्थिति के लिए बिजली सबसिडी को एक बड़ा जोखि़म करार दिया है। रिजर्व बैंक के मुताबिक, ज्यादातर राज्य आर्थिक तनाव में हैं और उन पर बहुत कजऱ् है। बहरहाल देश में खाद्य सुरक्षा कानून है, सस्ते अनाज के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली है, 6-14 आयु वर्ग के बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा का कानून है, मुफ्त इलाज की व्यवस्था के लिए ‘आयुष्मान भारत’ योजना है, घर-घर नल में स्वच्छ जल की व्यवस्था जारी है, करोड़ों नागरिकों के लिए सबसिडी वाला रसोई गैस का सिलेंडर है, प्रधानमंत्री आवास और पोषण योजनाओं के तहत भी गरीबों की मदद की जा रही है। ऐसी योजनाओं को ‘रेवडिय़ां’ नहीं कह सकते, क्योंकि ये ‘राष्ट्रीय’ हैं। गरीब नागरिकों को ये सुविधाएं भी नहीं मिलेंगी, तो वे इनके खर्च का बोझ कैसे उठाएंगे? मरने की नौबत आ जाएगी। वैसे भी हम ‘कल्याणकारी’ देश हैं और जन-कल्याण हमारी सरकारों का पहला सरोकार होना चाहिए, लेकिन इनके अलावा ऐसी चीजों की लंबी सूची है, जो ‘मुफ्त तोहफे’ के तौर पर राजनीतिक दल चुनावों के दौरान पेश करते रहे हैं। उनसे उन्हें वोट मिलते हैं, यह भी निष्कर्ष सामने आ चुके हैं। वे चीजें ऐसी हैं, जिनके बिना जि़ंदगी चल सकती है।

 मुफ्तखोरी पर अब बार-बार सोचना चाहिए। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने केंद्र की मोदी सरकार पर कुछ बेहद गंभीर आरोप चस्पा किए हैं। केजरीवाल की सियासत मुफ्तखोरी पर टिकी है। उनके अधीन देश नहीं, एक अद्र्धराज्य है, जो देश की राजधानी भी है। वहां के हालात भिन्न हैं, लेकिन केजरीवाल जरा पंजाब में झांक कर देख लें और गुजरात को गुमराह न करें। यदि रेवडिय़ां राज्य के बजट की सीमा में हैं, तो उन्हें ठीक माना जा सकता है। यदि वे बजट के बाहर हैं और वित्तीय घाटा दिखाया जा रहा है, तो रेवडिय़ां गलत और गैर-कानूनी हैं। बहरहाल इस पर कोई तय परिभाषा सर्वोच्च अदालत को देनी चाहिए और रेवडिय़ों की परिधियां भी तय की जानी चाहिए, क्योंकि राजनीतिक स्तर पर सर्वसम्मति असंभव लगती है। असंभव इसलिए क्योंकि इस विषय में नेताओं के विचार भिन्न-भिन्न हैं। केजरीवाल कह रहे हैं कि मुफ्त सुविधाएं उपलब्ध कराना सरकारों का कत्र्तव्य है। वह मुफ्त की रेवडिय़ों को जनता के लिए जरूरी बता रहे हैं।

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