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विकास की कीमत विनाश तो न थी !

The cost of development was not destruction

उत्तराखंड में विख्यात और पवित्र बद्रीनाथ धाम तथा हेमकुंड साहब का प्रवेश द्वार जोशीमठ आस्थावान भारतीय समाज में श्रद्धा के बड़े महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में समादृत है। पुराने जमाने से यह स्थान श्रद्धालुओं के लिए आगे के कठिन रास्ते का पड़ाव रहा है । साथ ही रम्य पर्वतीय स्थल होने से लोगों की बढ़ती आवाजाही ने यहां पर्यटन व्यवसाय को बढ़ावा दिया और यह धार्मिक महत्व का स्थल धीरे-धीरे पैसा बनाने की कमाऊ जगह में तब्दील होने लगा । बाजार , व्यापार की बढ़ती गहमागहमी के साथ यहां भारी भरकम निर्माण कार्य भी तेजी से हुए। इस तरह के विकास और प्रगति की कथा की परिणति या क्लाईमेक्स आज जिस विनाश की लीला दिखा रहा है वह मानव समाज की त्रासदियों की सूची में एक नया अध्याय जोड़ रहा है । जोशीमठ का पहाड़ी भाग , जो पक्का पहाड़ न हो कर असलियत में हिमालय का मलबा है और इसलिए अधिक भार वहन करने में अक्षम है । पर कड़वा यथार्थ यही है कि इस सत्य को झुठलाते हुए मकान-दर-मकान बनते रहे और एक बड़ी जनसंख्या यहां आबाद ही गई ।

एक भरे पूरे नगर की तर्ज पर जोशीमठ में भी छोटे-बड़े रिहायशी मकानों के अलावे जरूरत के मुताबिक अनेक होटल , अस्पताल , विद्यालय और भी लगातार विकसित होते रहे । चीन के साथ की सीमा के निकट होने के कारण सैन्य प्रतिष्ठान भी बने । इन सब ने कमजोर धरातल पर वहां की क्षमता से ज्यादा वजन डाला । विकास को गति देने के लिए एनटीपीसी के साथ और भी अनेक परियोजनाओं ने परिस्थिति के संतुलन को और तबाह किया । यह सब तब हुआ जब भू-भौतिकी के वैज्ञानिकों की अनुसंधान रपटों में पारिस्थितिकी के बढ़ते क्षरण की समस्या की ओर पिछले तीन-चार दर्शकों में बार-बार ध्यान आकृष्ट किया गया । उन्होंने इस बात का अंदेशा जताया था कि अगर इस पर ध्यान न देकर समय रहते कार्रवाई न हुई तो भारी नुकसान होगा और बड़े हादसे हो सकते हैं । ऐसे बदलावों की आशंका बार-बार व्यक्त की जाती रही कि जिनका कोई विकल्प न होगा ।

इस तरह की जानकारी की सरकारी तंत्र निरंतर उपेक्षा करता रहा । सरकार फाइलों पर सोती रही और पर्यावरण की यह विकराल चुनौती बढ़ती ही गई । सरकारें आती-जाती रहीं , नेता वोट बटोर कर संसद और विधानसभा पहुंचते रहे और पहाड़ दरकता रहा । भू-धंसाव के भय के बीच आज सैकड़ों परिवार बेघर हो रहे हैं । उनके घरों में गहरी दरारें पड़ रही हैं और उनके जर्जर घरों के जमींदोज होने का खतरा आसन्न है । जमीन दरक रही है और उनके नीचे खाई बन रही है । कहते हैं अलकनंदा नदी का जल प्रवाह बढ़ता आ रहा है और पूरा क्षेत्र उसी में समा जाएगा। यह भारत और उसकी अमूल्य ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को अपूरणीय क्षति हो रही है जिसकी भरपाई हो ही नहीं सकेगी । शासन और व्यवस्था किस तरह और किस मनोवृत्ति से काम करते हैं उसे सिर्फ अदूरदर्शिता , लापरवाही और संवेदनहीनता ही कहा जा सकता है ।

अब तक सबकी रुचि तत्काल कुछ कर धर कर समस्या टालने की रही है । टालमटोल करते अनिश्चय के दौर में समय रहते कुछ भी सार्थक नहीं हो सका । इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि सारे के सारे विकास कार्य सरकार की नाक के नीचे उसी की देखरेख में होते रहे हैं। राजनीतिक दल स्वभाव के अनुसार एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं और अपनी अपनी जिम्मेदारी से बड़ी सरलता से मुक्त हो ले रहे हैं । जो भी हो , पाप जिसने भी किया प्रायश्चित्त तो जनता को ही करना है जिन्हें अपना आशियाना गंवाना पड़ रहा है और अकल्पनीय बर्बादी का साक्षी होना पड़ रहा है । लोभ की वृत्ति और लाभ का आकर्षण अंततः विनाशकारी ही साबित हो रहा है । अब उजड़ते लोगों के पुनर्वास की कारवाई शुरू हो रही है जिसकी मुश्किलें अंतहीन हैं । मुआवजे को लेकर खींचतान जारी है । यहां भी व्यवस्था की सरकारी प्रणाली हृदयहीन भाव से काम कर रही है और उसकी सीमाएं हैं । राजनीति उसमें भी हो रही है। आज विनाश का प्रबंधन भी सुरक्षित ढंग से सुनिश्चित किया जाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए ।

पहाड़ी क्षेत्रों में पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की दुर्घटनाएं हुई हैं उनके पीछे आर्थिक लाभ के लिए प्रकृति के साथ छेड़छाड़ और उसकी पारिस्थितिकी को तहस-नहस करने की खास भूमिका रही है । प्रकृति के ये स्रोत जैसे हैं हैं वे फिर से उगाए नहीं जा सकते । नदियां, पर्वत, उनके साथ लगी विविध प्रकार की वनस्पति, जीव- जंतुओं की प्रजातियां और उनसे उपजती और नियमित होती जलवायु उनका आंतरिक मामला है क्योंकि वे हर तरह से ‘नान रिन्युएबल हैं । उनके खोने पर उन्हें पाना असम्भव है । यह तो यहां धरती के रहवासी मनुष्य को सोचना है कि वह प्रकृति के साथ क्या और किस तरह का सलूक करे । अपने को प्रकृति से बाहर रख कर उसे अपने निजी उपभोग का विषय बनाना , उसका यथा सम्भव शोषण करना सतही और फौरी दृष्टि से फायदेमंद हो सकता है पर अंततः प्रकृति , जीवन और स्वयं मनुष्य के ही खिलाफ होगा ।

पश्चिमी औपनिवेशिक जकड़न से अलग हए गरीब, पिछड़े और सीमित संसाधनों वाले देशों के सामने आगे की राह क्या हो इस प्रश्न को ले कर असमंजस था । उन्हें शिक्षा , स्वास्थ और रोजगार जैसे प्रश्नों का उत्तर तलाशना था । यद्यपि संस्कृति और इतिहास की दृष्टि से वे भिन्न थे उनकी उन्मुखता और तैयारी उपनिवेश के माहौल में हुई थी । इसके चलते वे अधिकतर याचक की भूमिका में ही रहे । राजनीतिक स्वतंत्रता ने उन्हें मार्ग चुनने की स्वतंत्रता दी हालांकि नियंत्रण की डोर अपने हाथ में बनाए रखने की उनकी कोशिश जारी रही । इस तरह के द्वंद्व का समाधान सभी देशों ने अपने अपने ढंग से किया । विकास की बाहरी और देसी दोनों तरह की रीति नीति के अनुपात अलग अलग मात्रा और ढंग से अपनाए गए । समय बीतने के साथ उनके परिणाम भी सामने आ रहे हैं । जोशीमठ का हादसा मानवीय व्यवस्था की ऐसी खामी का नतीजा है जो विकास के हमारे नजरिये की पोल खोल रही है । ऐसी स्थितियां और जगह भी आ सकती हैं । इनका आकलन कर कार्रवाई आज की बड़ी जरूरत है । प्रकृति में सभी शामिल हैं । उसकी रक्षा किए बिना हमारे अपने अस्तित्व की भी रक्षा नहीं हो सकेगी ।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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