राजेन्द्र शर्मा
मोदी राज में, अमृत काल के
नाम पर, स्वतंत्रता के 75 साल बाद भारत
में, जनतंत्र का और इसलिए स्वतंत्रता का भी जैसा क्षय हो रहा
है, जम्मू-कश्मीर उसकी खास बानगी है। अमृत काल को अगर सचमुच
भारत का विषकाल बनने से बचाना है, तो स्वतंत्रता व जनतंत्र
से प्यार करने वालों को मिलकर, इस फिसलन को पलटना होगा।
स्वतंत्रता के पचहत्तर साल पूरे होने पर,
कथित अमृत वर्ष उत्सव की समारोही चकाचौंध के बीच, भारत और उसके जनतंत्र को जिस रास्ते पर धकेला जा रहा है, उसकी एक बड़ी आसान पहचान है। यह पहचान है, कभी भारत
का मुकुट कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर के साथ, इस 75वें स्वतंत्रता दिवस पर आज के भारत के प्रतिनिधि के रूप में मोदी सरकार
द्वारा किया जा रहा सलूक। अचरज नहीं कि मौजूदा निजाम के पैरोकार, फौरन पलटकर इसकी दलील देने लगें कि तो क्या पाकिस्तान द्वारा अपने
नियंत्रण वाले कश्मीर के साथ, इससे ज्यादा जनतांत्रिक या
बेहतर सलूक किया जा रहा है! लेकिन जो भी भारत की आजादी तथा जनतंत्र की 75 वर्ष की यात्रा की दिशा से, सिर्फ पाकिस्तान से
बेहतर होने से ही संतुष्टï होने के लिए तैयार नहीं होगा,
उसके लिए जरूर जम्मू-कश्मीर के साथ जो हो रहा है, एक प्रबल अनिष्टïकर संकेत है।
जम्मू-कश्मीर के साथ आजादी के 75 साल बाद जो सलूक हो रहा है, उसका सबसे प्रकट पक्ष
तो यही है कि इस 5 अगस्त को, जम्मू-कश्मीर
पर सीधे दिल्ली का राजचलते हुए, पूरे तीन साल हो गए। और
जम्मू-कश्मीर तो कथित अमृत काल में ऐसी अवस्था में ही प्रवेश करने जा रहा है,
जहां वह जनतंत्र के किसी दिखावे से भी महरूम होगा। कहने की जरूरत
नहीं है कि भारत के संविधान के अंतर्गत संघ का घटक बने किसी राज्य का बरसों-बरस
सीधे दिल्ली से शासित होना, भारतीय जनतंत्र का अंगविच्छेद ही
है। और अगर इस अंगविच्छेद की कोई परछाईं तक कथित अमृत वर्ष के जश्न पर पड़ती नजर
नहीं आती है, तो यह पूरे भारतीय जनतंत्र की ही गंभीर रुग्णता
का लक्षण है। अगर उपयुक्त उपचार न मिले तो शरीर के किसी एक हिस्से से शुरू होकर
गैंग्रीन, पूरे शरीर को ही सड़ा देता है।
यहां इसकी याद दिलाना भी अप्रासांगिक नहीं होगा
कि जम्मू-कश्मीर पर सीधे दिल्ली का राज चलते हुए तो वैसे अब, चार साल से भी ज्यादा हो चुके हैं। 2018 के जून के
मध्य में, भाजपा के महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली सरकार को
गिराने के बाद से, पहले राज्यपाल के शासन तथा फिर राष्ट्रपति
शासन के नाम पर, वहां सीधे दिल्ली का ही राज चल रहा था। फिर
भी, 2019 की 5 अगस्त के बाद से वहां जिस
तरह का दिल्ली का सीधे राज चल रहा है, 2018 के जून के बाद से
चल रहे दिल्ली के सीधे राज से बहुत भिन्न भी है। बेशक, जम्मू-कश्मीर
पर सीधे दिल्ली का राज लादे जाने की नौबत कोई पहली बार नहीं आयी है। इस राज्य के
भारतीय संघ का हिस्सा बनने के बाद से ही, जनतांत्रिक राजनीतिक
व्यवस्था के मामले में उसका सफर बहुत उबड़-खाबड़ ही रहा था। इसी का साक्ष्य है कि यह
1977 के बाद से आठवां और 2008 के बाद
से चौथा मौका था, जब राज्यपाल/ राष्ट्रपति शासन के माध्यम से,
जम्मू-कश्मीर में सीधे से दिल्ली का राज थोपा जा रहा था।
वैसे, 2018 के जून में
थोपा गया दिल्ली का राज भी, पहले से काफी भिन्न था। यह
भिन्नता इसके राजनीतिक संदर्भ में थी। भाजपा के महबूबा मुफ्ती के नेतृ़त्ववाली
सरकार से अलग होकर, जम्मू-कश्मीर पर सीधे दिल्ली से राज का
रास्ता बनाने का संबंध, पीडीपी और भाजपा के अप्राकृतिक गठजोड़
की सरकार के दो साल के दौरान, इस या उस मुद्दे पर गठजोड़ में
चलती रही खींचतान से कम और 2019 के अप्र्रैल-मई में होने जा
रहे, नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव के
तकाजों से ही ज्यादा था। जैसाकि संघ-भाजपा के जानकारों ने बार-बार रेखांकित किया
है, भारत का इकलौता मुस्लिम बहुल राज्य होने के नाते
जम्मू-कश्मीर देश में और पाकिस्तान अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर,
उनके मुस्लिम विरोधी बहुसंख्यकवादी गोलबंदी के केंद्रीय मार्कर या
तर्क हैं। जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान के प्रति शत्रुभाव का प्रदर्शन/स्मरण,
उनके बहुसंख्यकवादी आख्यान का बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व है। जाहिर है
कि जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ गठजोड़ सरकार में शामिल होना, इस आख्यान की धार कुुंद करता था। अचरज नहीं कि जम्मू-कश्मीर को भारतीय संघ
में कम से कम औपचारिक रूप से विशेष दर्जा देने वाली, संविधान
की धारा-370 को खत्म कराना, आरएसएस और
संघ परिवार की घोषित बुनियादी एजेंडे के आइटमों में से एक रहा है।
2019 के चुनाव में, पुलबामा
के आतंकी हमले और बालाकोट के कथित जवाबी हवाई हमले से बने वातावरण में, हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राष्टï्रवाद की लहर पर
सवार होकर, पहले से ज्यादा बहुमत से चुनकर आयी मोदी सरकार ने,
अपने हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक एजेंडे को ताबड़तोड़ आगे बढ़ाना शुरू कर
दिया। उसने अचानक संसद में प्रस्ताव पेश कर, रातों-रात न
सिर्फ जम्मू-कश्मीर को कम से कम औपचारिक रूप से विशेष दर्जा देने वाली संविधान की
धारा-370 तथा 31-ए को निरस्त कर दिया
बल्कि जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा भी खत्म करते हुए, उसे
दो केंद्र शासित क्षेत्रों—जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बांट भी दिया।
यह संसद तथा संविधान, दोनों
के साथ जिस तरह की कपटलीला से किया गया था, उसके आधार पर
मोदी सरकार के इन कदमों को फौरन ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी थी। लेकिन,
दुर्भाग्य से संवैधानिक अदालत की अपनी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका को
लटकाए रखते हुए, शीर्ष अदालत को अब तक इतने महत्वपूर्ण
मुद्दे पर विचार शुरू करने तक का समय नहीं मिला है! यह तब है जबकि मोदी सरकार ने
अपनी इस कपटचाल से, भारत के संविधान की बुनियादी संरचना के
लिए ही खतरा पैदा कर दिया है। आखिरकार, अगर भारतीय गणतंत्र,
राज्यों का संघ है, तो संघ के घटक के रूप में
किसी राज्य को, उसकी इच्छा के बिना कैसे तोड़ा जा सकता है या
उसका राज्य का दर्जा कैसे खत्म किया जा सकता है! संघीय शासन को अगर यह अधिकार दे
दिया जाता है, तो यह तो पूरे संघीय ढांचे को ही ध्वस्त कर
सकता है।
अचरज नहीं कि जम्मू-कश्मीर पर जिस
सांप्रदायिक-केंद्रीयकरणकारी हमले के तीन साल इसी हफ्ते पूरे हुए हैं, उसे पूरी तानाशाही के बल पर थोपा गया है। 5 अगस्त 2019 से पहले की रात को तीन-तीन पूर्व-मुख्यमंत्रियों समेत, कश्मीर के करीब-करीब सभी बड़े नेताओं को ही गिरफ्तार या नजरबंद नहीं कर
दिया गया, हजारों की संख्या में राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी
जेलों में ठूंस दिया गया और पूरे केंद्र शासित क्षेत्र पर मुकम्मल लॉकडाउन थोप
दिया। परिवहन, टेलीफोन, इंटरनैट,
मीडिया, सब बंद कर और दसियों हजार सुरक्षा बल
के जवानों को तैनात कर, पूरे राज्य को ही जेल में तब्दील कर
दिया गया। बेशक, साल-डेढ़ साल बीत जाने के बाद से जेल के इस
निजाम में कुछ ढील दी गयी, कुछ बड़े नेताओं को जेलों से छोड़ा
गया तथा स्कूल-कालेजों को खोलने समेत कुछ गैर-राजनीतिक गतिविधियों की भी धीरे-धीरे
इजाजत दी गयी, फिर भी तरह-तरह की अलोकतांत्रिक पाबंदियां तीन
साल बाद भी बनी हुई हैं। तीन साल बाद भी घाटी के सबसे सम्मानित धार्मिक नेताओं में
से एक माने जाने वाले, उदारवादी अलगाववादी मौलवी उमर फारुख की
रिहाई की मांगें ही उठ रही होना, इसी की याद दिलाता है।
बेशक, इन तीन सालों में
मोदी सरकार ने, सशस्त्र बलों के हथियारों के बल पर अपनी 56 इंच की छाती के प्रदर्शन और मिलिटेंटों की मौतों के बढ़ते आंकड़े के अलावा
भी ऐसा बहुत कुछ किया है, जो देश के इस पहले ही अशांत हिस्से
को और निराशा के अंधेरे में धकेल रहा है। किसी भी कीमत पर, अपनी
पसंद की सरकार लादने की कोशिश में, वहां सिर्फ नागरिकों की
जनसांख्यिकी में तथा प्रस्तावित विधानसभा की जनसांख्यिकी में मुस्लिम विरोधी बदलाव
ही नहीं थोपे जा रहे हैं, इस सारे खेल में मुस्लिम बहुल
कश्मीर और हिंदू बहुल जम्मू के बीच विभाजन की खाई को भी और चौड़ा किया जा रहा है।
इसके बावजूद, लोगों की राय के लिए इतनी सी गुंजाइश भी नहीं
है कि कश्मीर बार एसोसिएशन, कश्मीर चेंबर आफ कामर्स एंड
इंडस्ट्रीज तथा कश्मीर प्रेस क्लब जैसी, नागरिक समाज की
संस्थाओं तक के चुनाव हो जाएं। लैफ्टीनेंट गवर्नर प्रशासन इन चुनावों के लिए भी
इजाजत देने के लिए तैयार नहीं है।
भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के तीन मूल
तत्वों—संघीय व्यवस्था, धर्मनिरपेक्षता तथा जनतंत्र—की बलि
चढ़ाकर, मुख्यत: सुरक्षा बलों के ही सहारे, आम पर्यटन से लेकर विशेष रूप से हिंदू धार्मिक पर्यटन तक के लिए "सामान्य स्थिति" दिखाने की कोशिशें, कश्मीर में और आम तौर पर इस केंद्र शासित क्षेत्र में ही, देश के शासन से लोगों के अलगाव को बहुत बढ़ाने का और उनके बीच इस एहसास को
और तीखा करने का ही काम कर रही हैं कि वे किसी ऑक्यूपाइड क्षेत्र में हैं। इसी का
नतीजा है कि एक ओर तो धीरे-धीरे तमाम उदार तथा भारत के अनुकूल आवाजें खामोश होती
जा रही हैं और दूसरी ओर उग्रवादी हिंसा में भी शायद ही कोई कमी आयी है। उल्टे अगर
यह सच है कि शासन की बंदूकें पहले से ज्यादा संख्या में मिलिटेंटों को मार रही हैं,
तो यह भी सच है कि मिलिटेंटों की कतारों में अब मुख्यत: स्थनीय
नौजवान ही हैं और मिलिटेंटों की कतारों में भर्ती होने वालों की संख्या हर रोज
बढ़ती ही जा रही है। यह भारत के साथ कश्मीर के नाजुक रिश्ते को और कमजोर करने का ही
रास्ता है।
मोदी राज में, अमृत काल के
नाम पर, स्वतंत्रता के 75 साल बाद भारत
में, जनतंत्र का और इसलिए स्वतंत्रता का भी जैसा क्षय हो रहा
है, जम्मू-कश्मीर उसकी खास बानगी है। अमृत काल को अगर सचमुच
भारत का विषकाल बनने से बचाना है, तो स्वतंत्रता व जनतंत्र
से प्यार करने वालों को मिलकर, इस फिसलन को पलटना होगा। अमृत
उत्सव में तिरंगे की बगल में जम्मू-कश्मीर के झंडे की बहाली की मांग, इस फिसलन को रोकने की भी आवाज है।