संजीव ठाकुर
मां शब्द बड़ा ही मृदु, विशाल और व्यापक होता है पूरी सृष्टि इसमें समाहित होती है। मां ,धरती, जननी, धरा ,माते इतने पवित्र शब्द है कि संताने उनका ऋण कभी नहीं चुका सकती हैं और पिता वटवृक्ष से घना साया हैं मातृ -पितृ ऋण से कभी उबरा नहीं जा सकता है। पितृ पक्ष में माता-पिता के ऋण से ऊबरने के लिए ऐसे व्यक्ति भी जोर-जोर से श्राद्ध कर्म करके लोगों को भोजन से तृप्त करने का प्रयास करते हैं जिन्होंने अपने माता-पिता के जीवित रहते हुए कभी उनके प्रति श्रद्धा के भाव नहीं दिखाएं एवं उनकी यथोचित श्रद्धा पूर्वक सेवा तथा देखभाल नहीं की थी।जिस संतान ने अपने माता-पिता के जीवित रहते हुए उनकी सच्ची सेवा एवं सर्वांगीण सम्मान किया हो केवल वे ही मातृ-पितृ ऋण से उबरने के लाभ के हकदार होते हैं। जीवित अवस्था में अभाव में भोजन पानी को तरसते हुए माता-पिता की मृत्यु के पश्चात अपनी आत्म संतुष्टि और सामाजिक रूप से दिखावे के लिए संतानों द्वारा किया गया श्राद्ध कर्म मिथ्या अथवा आडंबर ही हो सकता है सच्ची सेवा नहीं।
यूरोप और पश्चिम देश इतने अभागे हैं कि वे अपने माता और पिता को वृद्धा आश्रम में छोड़ आते हैं या उन्हें छोड़कर स्वयं संताने दूर चली जाती हैं। स्विजरलैंड जैसे खूबसूरत देश में बुजुर्ग दंपत्ति इच्छा मृत्यु लेकर अपना अंतिम समय व्यतीत करते हैं। भारत इस मामले में काफी हद तक सांस्कृतिक संस्कारी रूप से समृद्ध है मां-बाप संतानों के पास रहते हैं और शांतिपूर्वक जीवन यापन करते हैं। कुछ प्रतिशत छोड़ दिया जाए महानगरों में संताने मां और पिता को वृद्ध आश्रम में रखने का उपक्रम करने लगे हैं। पाश्चात्य सभ्यता की यह अंधी नकल बुजुर्ग दंपतियों के लिए बड़ी ही मार्मिक और हृदय विदारक होती है। वृद्ध दंपतियों का अनुभव परिवार के विकास समृद्धि के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। यह विडंबना है कि जब व्यक्ति अत्यंत अनुभवी परिपक्व,प्रबुद्धशाली हो जाता है तब उसके अनुभव कार्य की लगन शीलता और परिपक्व मस्तिष्क का हम सदुपयोग नहीं करते उन्हें अवकाश प्रदान कर देते हैं। यह भी इस सिक्के का दूसरा पहलू है कि ईस उम्र में शरीर में थकावट और वृद्धावस्था आ जाती है पर हम उन्हें सम्मान और यथा योग्य महत्व देकर उनके मार्गदर्शन और परामर्श का यथोचित लाभ लेकर अपने जीवन व्यवसाय अथवा नई नीतियों में सफलता प्राप्त कर सकते हैं, पर अमूमन ऐसा होता नहीं है।
वृद्धावस्था को जीवन का अंतिम पड़ाव एवं समस्याओं से घिरी हुई अवस्था माना जाता है, क्योंकि इस अवस्था में वृद्धों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।समय की रफ्तार के साथ समाज में अनेक परिवर्तन होने लगे हैं। नवीन पीढ़ी के लोग पुराने विचारों के लोगों का उनके जीवन में हस्तक्षेप उचित ना समझ कर बर्दाश्त नहीं करते हैं,इसी कारण युवा पीढ़ी बुजुर्गों और वृद्धों के विचारों की गहन उपेक्षा करने लगते हैं और बुजुर्गों को लगता है कि उनकी समाज में उपयोगिता धीरे धीरे कम हो रही है। जीवन का सांध्य काल आने पर मनुष्य कई समस्याओं से घिर जाता है। सबसे बड़ी समस्या शारीरिक क्षमता में कमी आ जाने की है, शरीर की सभी इंद्रियां धीमी पड़ जाती हैं,अनेक प्रकार की व्याधियों से शरीर घिर जाता है और मनुष्य धीरे-धीरे शरीर पर नियंत्रण खोता जाता है। उम्र के वृद्धावस्था के पड़ाव पर अनेक शारीरिक बीमारियों के साथ-साथ मूल समस्या मानसिक व्याधि की होती है। सरकारी तथा गैर सरकारी संगठनों में वेतन भोगी कर्मचारी को एक निर्धारित आयु के बाद सेवानिवृत्त कर दिया जाता है और यह मान लिया जाता है कि वह व्यक्ति अब शारीरिक एवं मानसिक श्रम के योग्य नहीं रहा चाहे वह व्यक्ति स्वस्थ ही क्यों ना हो। इसके बाद उस व्यक्ति के जीवन में अनेक कठिनाई आने लगती हैं। जैसे ही व्यक्ति की आर्थिक उपयोगिता समाज में कम होने लगती है, वह समाज के लिए अनुपयोगी मान लिया जाता है और इस अवस्था में पहुंचने के बाद मानसिक तनाव की स्थिति बनने लगती है। लोगों के संपर्क में न रहना, सहयोगी तथा मित्रों की मृत्यु भी मानसिक तनाव का बड़ा कारण होती है। आत्मविश्वास की धीरे-धीरे कमी होने लगती है, जिससे मानसिक विकृति अकेलापन आदि जैसे रोगों का निर्माण होने लगता है। इस अवस्था में मान सम्मान की कमी की समस्या तो होती ही है, दूसरी तरफ सीमित तथा अल्प धन की उपलब्धता के कारण आर्थिक कष्ट भी वृद्धों को उठाना पड़ता है। इसके साथ ही परिवार तथा समाज की नजरों में व्यक्ति अनुपयोगी, बोझ, समझा जाने लगता है, जिससे बुजुर्ग व्यक्ति के मन में एक प्रकार की वितृष्णा आने लगती है। और कई बुजुर्ग इस अवहेलना को बर्दाश्त न कर के आत्महत्या तक कर बैठते हैं। जो व्यक्ति कुछ समय पहले तक महत्वपूर्ण था, विशिष्ट था वह अचानक ही बोझ समझा जाने लगता है। उसके मान सम्मान एवं भावनाओं का महत्व बहुत कम हो जाता है। भागदौड़ वाली इस जिंदगी में युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों से एक दूरी बनाना शुरु कर देती है और वह व्यक्ति अकेला ही रह जाता है। जब मनुष्य अपने को एकाकी समझने लगता है तो यह उसके जीवन का सर्वाधिक कठिन समय एवं पल होता है। आत्मविश्वास जनित प्रेरणा की कमी वृद्धावस्था को बोझिल बना देती है। व्यक्ति की स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाती है, दूसरों पर निर्भरता बढ़ने लगती है। नई पीढ़ी द्वारा उसे अकेला छोड़ दिया जाता है। यही परिस्थिति वृद्धा अवस्था के लिए एक अभिशाप की तरह होती है।
वृद्धावस्था में मनुष्य के मानसिक तथा शारीरिक कष्ट के प्रमुख कारणों में से संयुक्त परिवार का विघटन भी है। युवा पीढ़ी द्वारा अपने मां-बाप से अलग होकर रहने की चाहत हमारे देश में एक गंभीर समस्या पैदा करती है। वृद्ध व्यक्ति या दंपत्ति को जिस आयु में पुत्र, पुत्रियों की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है, ऐसे समय में पुत्र द्वारा उनकी देखभाल छोड़कर अलग रहने के लिए अलग मकान बनाना या किराए पर रहना, उस दंपत्ति या व्यक्ति को मानसिक रूप से प्रताड़ित भी करती है। भारत देश वही देश है यहां की संस्कृति में परिवार के बुजुर्ग को भगवान के समान माना जाता था, किंतु संयुक्त परिवार प्रणाली के विघटन के कारण आज की नई युवा पीढ़ी ना तो बड़ों के अनुशासन में रहना चाहती है नहीं उन्हें किसी प्रकार का आदर सम्मान देना चाहती है। औद्योगिकरण और विसंस्कृतिकरण प्रणाली के फल स्वरुप युवा पीढ़ी के रहन-सहन एवं जीवन शैली में तीव्र बदलाव देखा जा रहा है। इस युग में व्यक्ति जितना अपने कार्यों में व्यस्त हो गया है कि उसको परिवार के साथ बैठने, रहने की फुर्सत ही नहीं मिल पाती। भारत में बदलते परिवेश में ओल्ड एज होम की अवधारणा तेजी से बल पकड़ती जा रही है। नई पीढ़ी तरह पुरानी पीढ़ी के बीच एक तरह कम्युनिकेशन गैप भी आ जाता है, जो बुजुर्गों के लिए एक बड़ी समस्या होती है। बुजुर्ग दंपत्ति हो या व्यक्ति के पास जब तक धन रहता है तब तक उनके पुत्र, पुत्री उनका ख्याल रखते हैं और जब वह धनहीन हो जाते हैं, तो उन्हें नकार दिया जाता है ।यह एक बड़ी समस्या आज बुजुर्गों के सामने यक्ष प्रश्न बनकर खड़ी है। व्यक्ति को बुजुर्ग अवस्था में जब सबसे ज्यादा धन की आवश्यकता होती है तब उसके पास धन नहीं होता है। यह धन की कमी उपेक्षा का बड़ा कारण भी बनती है। युवा पीढ़ी का व्यक्तिगत स्वार्थ एवं धन के प्रति आकर्षण भी बुजुर्गों के प्रति प्रभाव तथा उपेक्षा का मूल कारण होता है।
व्यक्ति का जब सर्वश्रेष्ठ काल होता है तब उपेक्षित और समस्या ग्रस्त होकर अवसाद ग्रस्त हो जाता है।
अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग वृद्धावस्था के बारे में लिखा है
मेरे साथ रहो, रुको वृद्ध हो,
अभी जीवन का सर्वोत्तम शेष है।
वृद्ध व्यक्ति भी मानव है, उसे भी संवेदना, सहानुभूति और प्यार की आवश्यकता होती है। नई पीढ़ी को चाहिए कि वृद्धों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करें उनकी लगातार सेवा करनी चाहिए, उनके मार्गदर्शन उनका परामर्श परिवार तथा समाज के लिए जल कल्याणकारी होता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार उनका आशीर्वाद उनकी शुभकामनाएं लोक मंगलकारी होती हैं यह माना जाता है कि बुजुर्ग का आशीर्वाद ईश्वर के आशीर्वाद जैसा ही होता है।