यादों में बसे हैं सावन के झूले

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रमेश सर्राफ धमोरा

सावन को बहुत पवित्र महीना माना जाता है। मान्यता है कि सावन में माता पार्वती ने भगवान शिव की तपस्या करके उन्हें पाया था। सावन दक्षिणायन में आता है जिसके देवता शिव हैं। इसीलिए इन दिनों उन्हीं की आराधना शुभ फलदायक होती है। सावन के महीने में बहुत वर्षा होती है। इसलिये इसे वर्षा ऋतु का महीना या पावस ऋतु भी कहा जाता है।

तुम्हें गीतों में ढालूँगा सावन को आने दो । ऐसे गाने सावन आते ही लोगों की जुबान पर खुद-ब-खुद आ जाते हैं। पहले सावन शुरू होते ही गांव की गलियों से लेकर शहरों तक झूले पड़ते थे। महिलाएं झूला झूलतीं और गाती थीं। सावन व भादो का महीना हमे प्रकृति के और निकट ले जाता है। झूले झूलने के दौरान गाये जाने वाले गीत मन को सुकून देते हैं। झूले गांव के बागीचों, मंदिर के परिसरों में डाले जाते थे।

भारतीय संस्कृति में झूला झूलने की परम्परा वैदिक काल से ही चली आ रही है। श्री कृष्ण राधा संग झूला झूलते और गोपियों संग रास रचाते थे। मान्यता है कि इससे प्रेम बढ़ऩे के अलावा प्रकृति के निकट जाने एवं उसकी हरियाली बनाये रखने की प्रेरणा मिलती है। एक दौर था जब लोगों को सावन के महीने का बेसब्री से इंतजार रहता था। लड़कियां ससुराल से मायके आती थीं। लेकिन अब ये परंपरा खत्म होती जा रही है। अब न तो झूले पड़ते हैं और न गीत सुनाई देतें है।

सावन शुरू हो गया है लेकिन इसका एहसास ही नहीं हो रहा है। उमंग और खुमारी का संगम इसी महीने में हरियाली तीज पर खत्म होता था। सखियों को सुख-दुख बांटने, साथ बैठकर मेंहदी लगाने की परंपरा फिर गीत गाना सब गुम हो चुका है। बच्चे अब झूले नहीं वीडियो गेम में मस्त रहते हैं। महिला संगठन भी अब किटी पार्टी जैसे आयोजनों तक सीमित हैं। झूले की परम्परा लुप्त होने के पीछे सबसे प्रमुख वजह मनोरंजन के भरपूर साधनों का होना भी हैं।

सावन के आते ही गली-कूचों और बगीचों में मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूले का लुत्फ उठाया करती थीं। अब न तो पहले जैसे बाग-बगीचे रहे और न ही मोर की आवाज सुनाई देती है। अब बिना झूला झूले ही सावन गुजर जाता है।

वन माफियाओं के चलते गांवों में भी बाग-बगीचे नहीं बचे हैं। जहां युवतियां झूला डाल कर झूल सके। अब समय के साथ पेड़ गायब होते गए और उनके स्थान पर बहुमंजिला इमारतों के बनने से आंगन का अस्तित्व समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी यादें बनकर हमारी परम्परा से गायब हो रहे हैं। जन्माष्टमी पर मंदिरों में सावन की एकादशी के दिन भगवान को झूला झुलाने की परम्परा जरूर अभी भी निभाई जा रही है। आज के समय में सावन के झूले नजर नहीं आने का कारण जनसंख्या घनत्व में वृद्धि के साथ ही वृक्षों की कटाई हैं। लोग अब घर की छत पर या आंगन में लोहे के झूले पर झूलकर मन को संतुष्ट कर रहे हैं। बुद्धिजीवी वर्ग सावन के झूलों के लुप्त होने की प्रमुख वजह सुख सुविधा और मनोरंजन के साधनों में वृद्धि को मान रहे हैं।

सावन में झूला झूलना मात्र आनंद की अनुभूति नहीं कराता अपितु यह स्वास्थ्यवर्धक प्राचीन योग भी है। सावन में चारो तरफ हरियाली छाई होती है। हरा रंग आंखों पर अनुकूल प्रभाव डालता है। इससे नेत्र ज्योति बढ़ती है। झूला झूलते समय श्वांस-उच्छवास लेने की गति में तीव्रता आती है। इससे फेफड़े सुदृढ़ होते हैं। इसके साथ ही झूलते समय श्वांस अधिक भरा, रोका एवं वेग से छोड़ा जाता है। इससे नवीन प्रकार का प्राणायाम पूर्ण हो जाता है जो स्वास्थ्य वर्धक है। झूलते समय रस्सी पर हाथों की पकड़ सुदृढ़ होती है। इसी प्रकार खड़े होकर झूलते समय झूले को गति देने बार-बार उठक-बैठक लगानी पड़ती हैं। इन क्रियाओं से एक ओर हाथ, हथेलियों और उंगलियों की शक्ति बढ़ती है वहीं दूसरी ओर हाथ-पैर और पीठ-रीढ़ का व्यायाम हो जाता है।

गांवों की बुजुर्ग महिलायें बताती हैं कि सावन आते ही बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और पेड़ों पर झूला डाल कर झूलती थीं। त्योहार में बेटियों को ससुराल से बुलाने की परम्परा तो आज भी चली आ रही है। लेकिन जगह के अभाव में न तो कोई झूला झूल पाता है और न ही अब मोर, पपीहा व कोयल की सुरीली आवाज ही सुनने को मिलती हैं। दस साल पहले तक यहां रक्षाबंधन तक झूले का आनंद लिया जाता था। गांव के पेड़ पर मोटी रस्सी से झूला डाला जाता था और सारे गांव की बहन-बेटियां झूलती थीं। अब पेड़ ही नहीं हैं तो झूला कहां डालें। सावन के महीने में नवविवाहित महिलाओं को अपने मायके जाने की परम्परा राजस्थान में तो आज भी चली आ रही है।

अब वक्त ने ऐसी करवट ली है कि सावन तो आता है पर अपने रंग नहीं बिखेर पाता। जिस सावन के आते ही नववधु ससुराल से मायके पहुंच जाती थी। अब वैसा सावन नही होता है। झूले की परम्परा लुप्त होने के साथ ही सावन भादों की खुशबू अब कहीं नहीं दिखती है। कुछ स्थानों को छोड़ कर लोग इसका आनंद नहीं ले पा रहे हैं। झूलों के नहीं होने से हमे लोक संगीत भी सुनने को नहीं मिलता है। आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति के संग झूला झूलने की बात अब कहीं नहीं दिखती है। आज से दो दशक पहले तक झूलों और मेंहदी के बिना सावन की परिकल्पना भी नही होती थी।

झूला झूलने के खत्म हुए रिवाज के लिए गांवों में फैल रही वैमनष्यता भी जिम्मेदार हैं। पहले गांव के लोग हर बहन-बेटी को अपनी मानते थे लेकिन अब जमाना बदल गया है। जिसके हाथ में रक्षा सूत्र बांधा जाता है वही भक्षक बन जाता है। बाग-बगीचों के खात्मे के साथ जहां मोर-पपीहों की संख्या घटी है वहीं भाईचारे में कमी आई है। नतीजतन झूला-झूलने की परम्परा को ग्रहण लग गया है।

पहले संयुक्त परिवार में बड़े-बूढ़ों के सानिध्य में लोग एक दूसरे के घरों में एकत्रित होते थे। आज बढ़ती एकल परिवार की प्रवृति ने आपसी स्नेह को खत्म कर दिया है। महिलाएं सामुदायिक केन्द्रो में जाकर पर्व मनाती हैं। शहरों में अब झूले डालने के लिए जगह की तलाश करनी पड़ती है। अब तो पारम्परिक पहनावा भी आधुनिकता की भेंट चढ़ गया है। अब छुट्टी के दिन लोग परिवार के साथ बाग-बगीचों में जाकर सावन का त्यौहार मनाने की रस्म पूरी करते हैं। वर्षा ऋतु में सावन की खूबियां अब किताबों तक ही सीमित रह गई हैं। अब प्रकृति के साथ जीने की परम्परा भी थमती सी जा रही है।

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