आज राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकने के लिए हमारे देश को जाति और धर्म में बांट दिया है!

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भारत देश का जन्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हुआ था। लेकिन राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकने के लिए हमारे देश को जाति और धर्म में बांट दिया। भारत का संविधान बनाने वालों ने लोकतंत्र में ने राजनीतिक पार्टियों के लिए कुछ निर्धारित नहीं किया जिससे इन्होंने मन माने ढंग से भारत में अपने फायदे के लिए धर्म और जाति के आधार पर पार्टि का गठन किया। भाजपा ने जहाँ हिंदु वोट बैंक का सहारा लिया तो, कांग्रेस ने मुस्लिम वोट बैंक का तो वहीं तथाकथित सेक्युलर पार्टियों ने लूली – लगड़ी धर्मनिरपेक्षता के आधार पर मजहबी बंटवारे को बढ़ावा दिया।

वैसे जातीय और धार्मिक भावनाओं को उभारकर राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति कोई नयी बात नहीं है। संविधान लागू होने के बाद देश में पहला आम चुनाव अक्टूबर, 1951 से फरवरी, 1952 के बीच हुआ था। तब से लेकर आज तक चुनाव में किसी न किसी रूप में जाति और धर्म के आधार पर राजनीतिक गोलबंदी और ध्रुवीकरण का इतिहास रहा ही है। अब तक 18 लोक सभा चुनाव हो चुका है। इसके अलावा राज्यों में अनगिनत विधान सभा चुनाव हुए हैं।

इस समय हम 21वीं सदी के तीसरे दशक में हैं। यह डिजिटल सदी है। दुनिया तकनीकी विकास के उस युग में पहुँच चुकी है, जहाँ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का बोलबाला है। इसके विपरीत भारत में अभी भी जाति-धर्म की चाशनी में सराबोर राजनीति की धारा बह रही है। अगर हम ग़ौर से तमाम राजनीतिक दलों और नेताओं के बयानों, मंसूबों और इरादों का विश्लेषण करें, तो राजनीति में जाति-धर्म की मिलावट के मोर्चे पर भारत में कुछ भी नहीं बदला है। राजनीतिक तंत्र का विकास ही उस रूप में किया गया है, जिससे आम जनता चाहकर भी जाति-धर्म के चंगुल से बाहर नहीं निकल पा रही है।

सवाल उठता है कि इस परिस्थिति के लिए ज़िम्मेदार कौन है। सरल शब्दों में कहें, तो, इसके कोई एक शख़्स या कुछ व्यक्तियों का झुंड ज़िम्मेदार नहीं है। इस व्यवस्था और हालात के लिए देश के तमाम राजनीतिक दल और उनसे जुड़े नेता ज़िम्मेदार हैं। राजनीतिक दलों ने राजनीति को सिर्फ़ और सिर्फ़ सत्ता हासिल करने की महत्वाकांक्षा तक सीमित कर दिया है। इस महत्वाकांक्षा को हासिल करने में राजनीतिक दल और नेता किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं।

इसमें राजनीतिक दलों को जाति-धर्म का रास्ता सबसे सरल लगता है। यह स्थिति तब है, जब संवैधानिक और क़ानूनी तौर से जाति-धर्म के आधार पर सार्वजनिक रूप से वोट मांगने पर पाबंदी है। सैद्धांतिक तौर से हर दल और नेता इस तथ्य से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखने का दावा करते आए हैं, लेकिन वास्तविकता और व्यवहार में पहले से यह होता आ रहा है। अभी भी यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी है।

जाति और धर्म किसी भी व्यक्ति को जन्मजात मिल जाता है। इसमें हासिल करने जैसा कुछ नहीं है। हम लोग बचपन से किताबों में पढ़ते आ रहे हैं कि जाति-धर्म के नाम पर राजनीति किसी भी संवैधानिक व्यवस्था में उचित नहीं है। आज़ादी के कुछ दशक तक कहा जाता था कि भारत में साक्षर लोगों की संख्या कम है। निरक्षरता की वज्ह से राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए आम लोगों को जाति और धर्म के फेर में उलझाना आसान हो जाता था। हालाँकि उस वक़्त कहा जाता था कि जैसे-जैसे देश में साक्षरता बढ़ेगी, नए-नए तकनीक का आगमन होगा।।लोगों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति की चेतना जागेगी।।वैसे-वैसे लोगों की सोच बदलेगी और फिर जाति-धर्म के आधार पर राजनीति करना मुश्किल होता जाएगा।

इसे विडंबना ही कहेंगे कि साक्षरता बढ़ी, आम लोगों के जीवन में तकनीक का प्रयोग भी बढ़ा, उसके बावजूद राजनीति में जाति-धर्म का प्रभाव घटने की बजाए बढ़ गया है। पिछले एक दशक में इस प्रवृत्ति को और भी बढ़ावा मिलते दिख रहा है। कोई सैद्धांतिक तौर से इसे स्वीकार करे या नहीं करे।।यह वास्तविकता है कि पिछले एक दशक में बीजेपी की राजनीति के फलने-फूलने के पीछे एक महत्वपूर्ण फैक्टर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण रहा है। आम लोगों में हिन्दू-मुस्लिम भावना को उकेर कर राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि में बीजेपी और उससे जुड़ी तमाम संस्थाओं को कामयाबी भी मिली है।

पिछले एक दशक में हमने कई बार देखा और सुना है, जब बीजेपी के वरिष्ठ नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पहचान को ओबीसी से जोड़ते हुए बयान दिया है। हालाँकि जब विपक्ष जातीय जनगणना के मसले को हवा देने लगा तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह भी कहने से पीछे नहीं रहे कि देश में सिर्फ़ दो ही जाति है।।अमीर और ग़रीब। इनके अलावे भी कई सारे उदाहरण मौजूद हैं, जो बताते हैं कि बीजेपी के तमाम नेता धर्म के साथ ही जाति का ज़िक्र सार्वजनिक तौर करते रहे हैं।

बीजेपी के वचर्स्व को ख़त्म करने के लिए अब कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल और उनके नेता जातिगत जनगणना को हर चुनाव में बड़ा मुद्दा बनाने के प्रयास में जुटे रहते हैं। धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की काट के तौर पर विपक्षी दल जातिगत भावनाओं के आधार पर भावनाओं को बल देने में जुटे हैं। भारत जोड़ो न्याय यात्रा में राहुल गांधी जिस मुद्दे को सबसे अधिक उभार रहे थे , वो जातिगत जनगणना का ही मसला है। राहुल गांधी का कहना है कि जिस जाति की जितनी आबादी है, उस अनुपात में उस तबक़े को हर चीज़ में हिस्सा मिलनी चाहिए। राहुल गांधी हर दिन देश की जनसंख्या में अलग-अलग जातियों और तबक़ों की हिस्सेदारी से जुड़े आँकड़ों को भी बता रहे हैं।

राहुल गांधी, अखिलेश यादव जैसे नेता जातीय जनगणना को सामाजिक न्याय के लिए ज़रूरी बता रहे हैं। इसे वंचितों को हक़ देने से जोड़ रहे हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि कुछ साल पहले तक जातिगत जनगणना के मसले पर राहुल गांधी इस तरह से मुखर नहीं थे। आगामी लोक सभा चुनाव को देखते हुए राहुल गांधी सबसे अधिक ज़ोर इसी मुद्दे को दे रहे हैं। अमुक जाति की इतनी आबादी है, तो उस अनुपात में उस जाति को उसका हक़ क्यों नहीं मिला।।इस सवाल को राहुल गांधी बार-बार जनता के बीच उठा रहे हैं।

हालाँकि एक सवाल राहुल गांधी से भी बनता है। कांग्रेस तक़रीबन 6 दशक तक केंद्र की सत्ता में रहने के बावजूद इस काम को क्यों नहीं कर पायी। इसके साथ ही 2011 में हुई सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए गए जातिगत आँकड़ों को उस वक़्त कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने क्यों नहीं जारी किया। अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा में राहुल गांधी को जातीय जनगणना का मुद्दा उठाते हुए इन सवालों का जवाब भी जनता के सामने रखना चाहिए था । सवाल तो राहुल गांधी से यह भी बनता है कि पिछले कई साल से इस मसले पर चुप्पी साधने के बाद अचानक देश में ऐसा क्या हुआ कि उन्हें जातिगत जनगणना का मसला सबसे महत्वपूर्ण लगने लगा। आख़िर लगभग 60 साल तक देश की सत्ता पर रहने के बावजूद कांग्रेस देश में सामाजिक न्याय को व्यवहार में लागू क्यों नहीं कर पायी। वंचित तबक़े को इतने सालों में उनका हक़ क्यों नहीं दिला पाई।

देश के आम लोगों और ग़रीबों के सामने और भी समस्याएं गंभीर रूप में मौजूद हैं। महंगाई, बेरोज़गारी, सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सुविधा की कमी, बेहतर इलाज के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भरता, सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर, शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र का प्रभुत्व जैसे कई मुद्दे हैं, जिनसे देश के हर तबक़े का वास्ता है। राहुल गांधी समेत विपक्ष के तमाम दल इन मुद्दों को उठाते तो हैं, लेकिन इनके लिए सड़क पर लंबा संर्घष करता हुआ कोई भी विपक्षी दल और उनके नेता नज़र नहीं आते हैं। पिछले कुछ दिनों में विपक्षी नेताओं की ओर से जिस तरह के बयान आ रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि जातिगत जनगणना का मुद्दा ही इनके लिए प्राथमिकता है।

दरअसल कांग्रेस और बीजेपी समेत तमाम दलों ने वर्षों से जिस राजनीतिक तंत्र का विकास किया है, इनके नेताओं को भलीभाँति एहसास है कि महंगाई, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों की अपेक्षा जाति-धर्म के आधार पर राजनीतिक घेराबंदी और वोट पाना ज़ियादा आसान है।भारत में कई ऐसे दल हैं, जिनका आधार ही किसी ख़ास जाति या तबक़े में पकड़ पर आधारित है। जिस तरह से बीजेपी के विस्तार में धर्म का प्रभावी भूमिका रही है, उसी तरह से अलग-अलग राज्यों में प्रभाव रखने वाले कई ऐसे दल हैं, जिनका अस्तित्व और विस्तार ही ख़ास जाति या समुदाय के समर्थन पर टिका रहा है। इमें बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, जनता दल (सेक्युलर) जैसी पार्टियों का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है। इनके अलावा भी कई छोटे-छोटे दल हैं, जिनकी नींव विशेष जातिगत समर्थन पर ही टिकी है।

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