झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन हाल ही में भाजपा में शामिल हुए थे। झारखंड में भाजपा के चुनाव प्रभारी केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान और सह प्रभारी हिमंत बिस्वा सरमा के नेतृत्व में उन्होंने भाजपा में एंट्री ली है। शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें भाजपा की संपत्ति बताया। ये बात सही है कि चुनावी मौसम में किसी भी दल में नेताओं का आना-जाना लगा रहता है। लेकिन चंपई सोरेन जैसे नेताओं पर अगर भाजपा ने दांव लगाया है तो जाहिर सी बात है कि उसे कुछ ना कुछ फायदे की उम्मीद जरूर होगी। हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि चंपई सोरेन के आने से भाजपा को सिर्फ फायदा ही होगा। कुछ नुकसान के भी संकेत मिल रहे हैं। जहां आदिवासी क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत करने में भाजपा को मदद मिलेगी। वहीं पार्टी के भीतर गुटबाजी बढ़ाने के भी आशंका दिखाई देती है।
चम्पाई सोरेन के भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के बाद से कई सवाल उठ रहे हैं। सबसे पहला सवाल ये कि क्या चम्पाई सोरेन भाजपा को झारखंड की सत्ता तक पहुंचा पाएंगे?दूसरा सवाल जो पार्टी खेमे के अंदर चर्चा का विषय है कि क्या चम्पाई सोरेन भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी की जगह ले लेंगे? तीसरा सवाल ये है कि चम्पाई सोरेन की सियासी पकड़ कितनी मजबूत है? चौथा सवाल ये है कि चम्पाई सोरेन भाजपा में क्यों शामिल हुए हैं? आइए इन पहलुओं को समझने की कोशिश करते हैं।
जब बाबूलाल मरांडी से ये सवाल पूछा गया था कि क्या चम्पाई सोरेन के भाजपा में आने से वह खफा हैं? तो उन्होंने इस बात से साफ़ इनकार कर दिया था । बाबूलाल मरांडी ने कहा कि चम्पाई सोरेन के आने से पार्टी राज्य में और मजबूत हुई है। उनके पार्टी में आने से कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन सूत्रों की मानें तो चम्पाई सोरेन भाजपा में नंबर दो के नेता बनने के इरादे से तो नहीं आए होंगे। ऐसा संभव हो सकता है कि चम्पाई सोरेन धीरे-धीरे बाबूलाल मरांडी की जगह ले लें।
भले ही बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बने थे। वह राज्य में भाजपा का अहम चेहरे थे लेकिन पार्टी में और जमीम पर उनकी पकड़ समय के साथ ढीली पड़ती गई है। मरांडी ने भाजपा छोड़कर झारखंड विकास मोर्चा नाम से नई पार्टी बनाई थी लेकिन 2019 के चुनावों में वह भाजपा में आ गए थे।विधानसभा चुनाव (2019) और लोकसभा चुनावों में मरांडी भाजपा को फायदा नहीं करा पाए हैं। विधानसभा (2019) और लोकसभा चुनावों में अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व सीटों पर हेमंत सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा को फायदा हुआ था। मरांडी को झारखंड की जनता आजमा चुकी है।भाजपा के दूसरे बड़े नेता अर्जुन मुंडा लोकसभा चुनाव हार गए हैं। वह विधानसभा चुनाव को लेकर राज्य में सक्रिय तो हैं लेकिन भाजपा उनको लेकर बहुत आश्वस्त नहीं लग रही है। ऐसे में चम्पाई सोरेन का भाजपा में शामिल होना कोई इत्तेफाक नहीं है।
देखा जाता है कि भाजपा पिछले कुछ सालों में विधानसभा चुनाव लड़ने की रणनीति हमेशा बदल लेती है। कई बार ऐसा देखा गया है कि भाजपा किसी और के चेहरे पर चुनाव लड़ती है और चुनाव जीतने के बाद किसी और सीएम बना देती है, जैसा हाल ही में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किया गया। हालांकि सीएम कौन होगा? इस सवाल के जवाब में बाबूलाल मरांडी ने कहा है कि अगर हम सत्ता में आते हैं तो ये एनडीए सरकार होगी और कोई भी सीएम बन सकता है।
झारखंड में विधानसभा की 81 सीटें हैं। पिछले विधानसभा चुनावों जेएमएम गठबंधन 47 सीटें जीती थी और भाजपा को सिर्फ 25 सीटें मिली थी। झारखंड में आदिवासी आबादी 26 फीसदी है। आदिवासी वोटों पर चम्पाई सोरेन की पकड़ भी मजबूत है, खासकर कोल्हन क्षेत्र की सीटों पर। चम्पाई सोरेन संथाल जनजाति बड़े नेता हैं। हालांकि हेमंत सोरेन भी इसी जनजाति से आते हैं।
कोल्हान क्षेत्र के टाइगर कहलाने वाले चम्पाई सोरेन के इलाके में सबसे ज्यादा आदिवासी आबादी है,जो 42 फीसदी है। 2019 विधानसभा चुनाव में जेएमएम ने कोल्हान क्षेत्र से 14 विधानसभा सीटों में से 13 जीती थीं। ऐसे में चम्पाई सोरेन का भाजपा की तरफ होना, उनके लिए फायदेमंद हो सकता है। चम्पाई सोरेन के भाजपा में आने से जेएमएम के आदिवासी वोट बैंक भी बंट जाएंगे। चम्पाई सोरेन आदिवासी मुद्दा और सहानुभूति भी बटोर सकते हैं।
दरअसल हाल के वर्षों में झारखंड में भाजपा कमजोर हुई है। 2024 के आम चुनावों में भी हमने देखा कि पार्टी अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सभी पांच लोकसभा सीटें हार गई। 2019 का झारखंड विधानसभा चुनाव भी इसी तरह निराशाजनक रहा, जिसमें भाजपा ने 28 आरक्षित सीटों में से केवल दो पर जीत हासिल की। हेमंत की अनुपस्थिति में, चंपई के नेतृत्व में, इंडिया ब्लॉक ने झारखंड में 2024 के लोकसभा चुनावों में 14 लोकसभा सीटों में से पांच सीटें हासिल कीं, जो 2019 की तुलना में तीन अधिक हैं। जेएमएम, राजद, सीपीआई-एमएल और कांग्रेस वाले इंडिया ब्लॉक ने सभी पांच एसटी सीटें जीतीं।
विधानसभा की 81 सीटों में से 28 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। और एसटी की लगभग 20 सीटें दक्षिणी और पूर्वी आदिवासी इलाकों में हैं।बताया जाता है कि कोल्हान की जमीनी स्तर की राजनीति में एक प्रमुख व्यक्ति चंपई सोरेन के आगामी विधानसभा चुनाव में महत्वपूर्ण प्रभाव डालने की उम्मीद है। पांच साल पहले भाजपा की रघुबर दास सरकार को हेमंत सोरेन की जेएमएम और उसके सहयोगियों के हाथों चुनावी हार का सामना करना पड़ा था।
चंपई का भाजपा में जाना झामुमो पर आदिवासियों का अपमान करने के भाजपा के आरोपों से मेल खाता है। अप्रैल में, हेमंत सोरेन के नेतृत्व के प्रति लंबे समय से चली आ रही नाराजगी के कारण झामुमो के संरक्षक शिबू सोरेन की बड़ी बहू सीता सोरेन के भाजपा में शामिल होने को भी चुनावी वर्ष में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए भाजपा द्वारा एक रणनीतिक कदम के रूप में देखा गया था। चंपई सोरेन पहले ही पूर्वोत्तर संथाल बेल्ट, एक अन्य आदिवासी बेल्ट और सोरेन परिवार के गढ़ में बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे पर बड़ी आवाज उठा चुके हैं। भाजपा भी यही बात उठाती रही है।
झारखण्ड की राजनीति की जानकारी रखने वाले एक जानकर बताते है कि चंपई सोरेन का भाजपा में शामिल होना एक दोधारी तलवार प्रतीत होता है और महत्वपूर्ण चुनावों से पहले पार्टी नेतृत्व के लिए सिरदर्द बन सकता है। एक ओर, यह झारखंड की आदिवासी आबादी के बीच अपनी अपील को मजबूत करके और झारखंड के आदिवासी-भारी इलाकों में संभावित रूप से अपनी चुनावी संभावनाओं को बढ़ाकर भाजपा को एक रणनीतिक लाभ प्रदान करता है। भाजपा के लिए पार्टी के भीतर बहुत बड़ी समस्या होने वाली है। अब झारखंड में भाजपा चार पूर्व मुख्यमंत्रियों, चंपई सोरेन, बाबूलाल मरांडी, मधु कोड़ा और अर्जुन मुंडा के साथ बढ़ती जा रही है, जिससे शीर्ष पद के लिए उम्मीदवारों की संख्या बढ़ गई है। एक पार्टी के लिए कई सत्ता केंद्र अच्छे संकेत नहीं हैं, जिसके लिए लोकसभा चुनाव में सीटों में गिरावट के बाद विधानसभा चुनाव महत्वपूर्ण हैं। पार्टी में गुटबाजी भी बढ़ सकती है।
गौरतलब है कि इस साल जिन चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं – अन्य तीन जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और हरियाणा हैं – उनमें से झारखंड एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा सत्ता में नहीं है। फिलहाल, राज्य में मुकाबला सीट-दर-सीट कांटे का होता दिख रहा है। भाजपा की कमजोर सीटों में से अधिकांश संथाल परगना और कोल्हान संभाग में हैं, जहां चंपई मदद कर सकते हैं। बाद में, बड़ी कुर्मी आबादी जेएमएम के खिलाफ हो गई है क्योंकि एसटी श्रेणी में शामिल किए जाने की उनकी मांग पूरी नहीं हुई है।
नए प्रवेशी जयराम महतो की झारखंडी भाषा खटिया संघर्ष समिति (जेबीकेएसएस) यहां खेल बिगाड़ सकती है। इस साल के लोकसभा चुनावों में इसके प्रवेश से विपक्षी वोटों में विभाजन हुआ, जिसका अंततः भाजपा को फायदा हुआ। पार्टी ने तीन सीटों पर 1.25 लाख से अधिक वोट हासिल किए।
एक और सामाजिक कारक है। हाल के वर्षों में, कई आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपना लिया है, जिससे सामाजिक तनाव पैदा हुआ है। आदिवासी ईसाई राजनीति पर हावी हैं, खासकर जेएमएम में। भाजपा इन तनावों का फायदा उठा रही है, क्योंकि अधिकांश एसटी मतदाता उसे ‘सरना’ आदिवासी मानते हैं, जो प्रकृति की पूजा करते हैं। फिर भी, लोकसभा चुनावों में, इंडिया ब्लॉक को उनसे कुछ समर्थन मिला क्योंकि इसने एक लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा करने का वादा किया था जिस पर भाजपा विचार करने से हिचक रही है: ‘सरना कोड’ का कार्यान्वयन, जो सरना धर्म का पालन करने वाले आदिवासियों के लिए एक अलग धार्मिक कोड का प्रस्ताव करता है।
जब चंपई सोरेन मुख्यमंत्री थे तब मुख्यमंत्री के तौर पर ने इस मांग को पूरा करने का वादा किया था और केंद्र पर इस पर टालमटोल करने का आरोप भी लगाया था। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि वह इस मामले में किस तरह संतुलन बनाते हैं। निस्संदेह, जेएमएम सोरेन पर हमला करने के लिए इस ‘दोहरे बोल’ का इस्तेमाल करने की कोशिश करेगा।
जेएमएम को उम्मीद है कि वह अपने एससी-एसटी-मुस्लिम वोट आधार को मजबूत कर पाएगा, जो राज्य की आबादी का 50% है। उसे यह भी उम्मीद है कि महतो की पार्टी कुर्मी वोट को विभाजित करेगी, जिससे ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (एजेएसयू) की संभावनाओं को नुकसान पहुंचेगा। यह भी उम्मीद है कि लोकसभा चुनाव में अपने बेहतर राष्ट्रीय प्रदर्शन के बाद कांग्रेस कुछ शहरी मतदाताओं को अपने पाले में कर पाएगी।
मूल प्रश्न यही है कि क्या चम्पाई सोरेने भाजपा को सत्ता दिलवा सकते हैं? क्या चम्पाई सोरेन भाजपा के अतीत के नुकसान की भरपाई कर सकते हैं? इसका फैसला तो चुनावी नतीजों के बाद ही होगा। लेकिन ये इस बात पर भी निर्भर करेगा कि क्या भाजपा चम्पाई सोरेन के नाम पर चुनाव लड़ेगी।