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जीवन जीने का धर्म

The religion of living life

पूजा और प्रशस्ति के बीच बुद्ध की प्रखर चिंतन प्रक्रिया ओझल या सरलीकृत हो जाती है। उनकी चिंतन प्रक्रिया कोरे वाग्विलास की जगह व्यावहारिक समाधान की ओर उन्मुख थी। जीवन की पीड़ादायी और असंतोषजनक स्थिति उनके विचार-यात्रा का मूल थी। जन्म-मृत्यु के बंधन कारागृह जैसे ही थे। पुनर्जन्म का अनवरत चलने वाला वात्याचक्र दुःख का कारण था और इससे उबरना मुख्य समस्या थी। ईसा पूर्व पाँचवीं सदी में जन्मे महात्मा बुद्ध अपने समय में प्रचलित धर्म-कर्म, विश्वास और जीवन पद्धति की विसंगतियों से क्षुब्ध थे। इतिहास में यह वह काल था जब कृषि की समृद्धि से नगर जन्म ले रहे थे और व्यापार के माध्यम से भारत से बाहर की संस्कृति की जानकारी भी मिल रही थी। बाह्य सम्पर्क से यह भी पता चल रहा था कि जाति विहीन समाज भी होते हैं और संस्कृत के अतिरिक्त और भी भाषाएँ बोली जाती हैं। बढ़ती सामाजिक गतिशीलता के आलोक में नए किस्म के धर्म की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। तरह-तरह के कर्मकांड थे और आगे चल कर उपनिषद के वेदांत विषयक विचार के प्रतिपादन में अनादि और अनंत ब्रह्म और उसकी प्राप्ति को जीवन के लक्ष्य के रूप में प्रतिष्ठित किए जा रहे थे। जीवन परिवर्तनशील है और ब्रह्म शाश्वत अर्थात् निरंतर उपस्थित रहने वाला और इस भाँति अपरिवर्तनीय। उसे शिव (कल्याणकारी) के रूप में प्रतिपादित किया गया। संभवत: ब्रह्म के साथ तादात्म्य के जरिए अमरता की प्राप्ति की अवधारणा शिवत्व का आधार थी।

महात्मा बुद्ध ने हमारे अनुभव जगत की परिवर्तनशीलता और अनित्यता के घोर सत्य को स्वीकार किया। इसके साथ ही उन्होंने यह भी लक्ष्य किया कि हमारे सुख-संतोष के क्षण भी आसन्न मृत्यु की पृष्ठभूमि में अस्थायी हो जाते हैं। परिवर्तन में दुःख, कुंठा और असंतोष भी स्वभावत: आ जाते हैं। महात्मा बुद्ध के विचार में जीवन के तीन लक्षण हैं: उसका अस्थायित्व, संतोष का अभाव और आत्मा की अनुपस्थिति। चीजें अस्थायी हैं इसलिए असंतोष होगा और वे आत्मा नहीं हो सकतीं क्योंकि उसे स्थायी और शाश्वत माना गया था। यदि आत्मा है जो परिवर्तित नहीं होता जो वह हमारे जीवन में, जो सतत परिवर्तनशील है, भाग ही नहीं ले सकता और हमें उसका किसी तरह की प्रतीति या अनुभव भी नहीं हो सकता। अनुभव तो कार्य और कर्म के परिणाम का ही होता है या हो सकता है जिसका चक्र निर्वाण मिलने तक चलता ही रहता है।


ध्यान रहे कि ‘अनात्त’ कह कर अस्तित्व की निरंतरता को नकारते हुए बुद्ध व्यक्ति को उसकी नैतिक जिम्मेदारी से मुक्त या बरी नहीं करते। हमारी निरंतरता (आत्मा की जगह) कर्म में बनी होती है। उपनिषद के चिंतन में जो स्थायी है अधिक महत्व का और वास्तविक यानी सत्य है और दूसरी ओर जो बदलता है वह कमतर सत्य है। अपरिवर्तनशील आत्मा का अस्तित्व है। बुद्ध इसके विपरीत खड़े होते हैं। कर्म का शाब्दिक अर्थ है कार्य या क्रिया। कर्म का बाद में भविष्य में अच्छा या बुरा परिणाम होता है जैसे- किसान खेत में बीज बोते हैं और बाद में चल कर फसल काटते हैं। बुद्ध के लिए कर्म भौतिक न था। वह कर्म को उसके पीछे की भावना या मंतव्य से जोड़ते हैं जो नैतिक या अनैतिक हो सकती है। पर हम जीवन का आरम्भ साफ स्लेट से नहीं करते। हम अपने अतीत के कर्मों के दाय से युक्त होते हैं। यदि नैतिक रूप से अच्छी भावना हो तो मन शुद्ध रहता है। नैतिक आदमी ध्यान द्वारा चित्त को शुद्ध कर सकता है तब स्वार्थी मनोवृत्तियों से मुक्त हो कर बुद्धि निर्मल हो जाती है। महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए। उनमें पहला यह है कि सभी प्राणी दुःख का अनुभव करते हैं। दूसरा यह है कि दुःख का कारण होता है। वह है इच्छाएँ होना। इच्छाओं का पूरा न होना दुःख का कारण बनता है। दुःख से मुक्ति की राह है इच्छाएँ न करना। चौथा इसका उपाय है अष्टांगिक मार्ग जो सम्यक् आचरण, आदि हैं। हम स्वयं अपने लिए उत्तरदायी हैं।


महात्मा बुद्ध खुद को इच्छाओं के बाण को बाहर निकालने वाले शल्य चिकित्सक की तरह व्यक्त करते हैं। वे यह भी कहते हैं कि जैसे समुद्र का स्वाद नमकीन होता है उनकी शिक्षाओं में सिर्फ मुक्ति का संदेश है। वे यह भी कहते हैं कि संदेह होने पर किसी और पर नहीं बल्कि अपने साक्षात् अनुभव को प्रमाण मानें। बुद्ध ने यह कहा कि हमारे जीवन और अनुभव में जो कुछ है वह केवल प्रक्रिया है और सभी चीजें कारणों से जुड़ी होती हैं। अर्थात् विश्व का न कोई आदि है न सर्जक। कुछ भी कारण से स्वतंत्र नहीं है। प्रक्रियाएँ यादृच्छिक (रैंडम) नहीं हैं न ही पूरी तरह पूर्वनिश्चित हैं। वे पूर्व दशाओं की सीमा में होती हैं। यदि चुनने का विकल्प न हो तो नैतिकता का ही लोप हो जायगा। कर्म को केंद्र में ला कर महात्मा बुद्ध ने आत्मा के विचार के स्थान पर, जो स्थिर और नैतिकता से रहित था, उसकी जगह एक प्रक्रिया के विचार को स्थापित किया जिनका अवलोकन किया जा सकता है और जो अनुभवगम्य है। यह प्रक्रिया परिवेश के साथ सतत अंत क्रिया करती रहती है और व्यक्ति को प्रभावित करती है।


महात्मा बुद्ध कोरे सिद्धांतकार न थे। उनहोने जीवन जीने के अनेक सूत्र भी दिए हैं। ‘धम्म पद’ में इनका सुंदर संकलन मिलता है। मनुष्य के आचरण के लिए मन की प्रधानता बतलाते हुए वे कहते हैं: मनो पुब्बंगमा धम्मा मनोसेट्ठा मनोमया अर्थात् सब कुछ मन से शुरू होता है और मनोमय है। अगर कोई दुष्ट मन से बोलता या करता है तो दुःख उसका पीछा करता है वैसे ही जैसे बैलगाड़ी का पहिया उसे खींचने वाले बैल के पीछे पीछे चलता है। इसके विपरीत यदि कोई प्रसन्न मन से बोलता या कुछ करता है तो सुख उसके पीछे-पीछे अनुसरण करता है जैसे आदमी की परछाई उसके साथ-साथ रहती है। यदि मन में किसी के प्रति कोई गाँठ बांध ली जाय तो उसके प्रति द्वेष या वैर का भाव कभी कम नहीं होता। महात्मा बुद्ध का दृढ़ विचार है कि अवैर से ही वैर समाप्त होता है।


महात्मा बुद्ध का जीवन-दर्शन आज भी प्रासंगिक है। वे कहते हैं कि पृथ्वी पर सभी प्राणियों का जीवन नश्वर है परंतु अक्सर लोग यह बड़ा तथ्य भूल जाते हैं। जो यह जानता है कि इस दुनिया से विदाई अनिवार्य है उसके मन में दूसरों के प्रति कटुता दूर हो जाती है, आसक्ति जैसी अग्नि नहीं रहती और द्वेष जैसा मल भी नहीं एकत्र होता है। इसी तरह यदि जीवन में अपरिग्रह (यानी ज़रूरत से ज़्यादा संग्रह न करना) आ जाय तो लोग सुखी जीवन बिता सकेंगे। पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में धम्म पद में कहा गया है कि ‘ विजय से दूसरे के साथ वैर जन्म लेता है और पराजित आदमी दुःख की नींद सोता है किंतु जो जय और पराजय दोनों से परे रहता है वह चैन से सुख की नींद सोता है’। शांति से बड़ा कोई सुख नहीं होता : नत्थि संतिपरं सुखं । महात्मा बुद्ध की सीख है कि अक्रोध से क्रोध को, भलाई से दुष्ट को, दान से कंजूस को और सच से झूठ को जीतना चाहिए। चूँकि सबको अपना जीवन प्रिय होता है और सब जीव अपने लिए सुख की कामना करते हैं इसलिए महात्मा बुद्ध कहते हैं कि आदमी अपने ही तरह सबका सुख-दुःख जान कर न तो खुद ही किसी को मारे और न दूसरों को किसी को मारने के लिए उकसाए।


मनुष्य जीवन में आरोग्य या स्वास्थ्य आज सबसे बड़ी चुनौती बनती जा रही है । इस संदर्भ में जीवनचर्या पर महात्मा बुद्ध के विचार ध्यान देने योग्य हैं। वे संतोष को सर्वाधिक महत्व का बताते हैं और इच्छा, मोह, राग और द्वेष को सबसे बड़े दोषों के रूप में पहचान की है। वे कहते हैं कि मनुष्य को शीलवान, समाधिमान, उद्यमशील और प्रज्ञावान हो कर जीना चाहिए। वे सत्य को सबसे पहला धर्म कहते हैं और धर्म का आचरण निष्ठा से की हिदायत देते हैं। महात्मा बुद्ध के शब्दों में मनुष्य स्वयं अपना स्वामी है उसे आप ही अपने को प्रेरित करना चाहिए । वह स्वयं अपनी चौकीदारी करे। वह स्वयं ही अपनी गति है। इसके लिए अपने को संयम की शिक्षा देनी होगी। अपने आपको जीतने वाला आत्म-जयी सबसे बड़ा विजेता होता है। जिसका चित्त स्थिर नहीं, जो सद्धर्म को नहीं जानता और जिसकी श्रद्धा डावाँडोल है, उसकी प्रज्ञा परिपूर्ण नहीं हो सकती। योग से प्रज्ञा की वृद्धि होती है । जिसे प्रज्ञा नहीं होती उसे ध्यान नहीं होता। जिसे ध्यान नहीं होता उसे प्रज्ञा नहीं होती।


बौद्ध चिंतन में व्यक्ति के उत्कृष्ट रूप को ‘बोधिसत्व’ कहा गया है । बोधिसत्व वह व्यक्ति होता है जो अपने लिए नहीं बल्कि प्राणिमात्र को कल्याण के मार्ग पर लाना चाहता है। वह अपने दुखों से ही नहीं पार पाना चाहता बल्कि सबके दुःख की निवृत्ति उसका लक्ष्य होता है। उसका ज्ञान उसे संसार से विरत नहीं करता । वह उसे सामने की कठिनाइयों और संघर्षों से मुठभेड़ कर उन पर विजय हेतु अग्रसर होता है । बोधिसत्व लोकोपकार में तत्पर रहता है। सब जीवों के कल्याण के लिए त्याग ही उसका अभीष्ट होता है। जैसा कि नालंदा के आचार्य शांतिदेव ने ‘बोधिचर्यावतार’ में कहा है ‘दूसरे प्राणियों को दुःख से छुड़ाने में जो आनंद का अपार समुद्र उमड़ता है वही सबकुछ है, केवल अपने लिए नीरस मोक्ष प्राप्त करने में क्या रखा है।’ आज के अस्त-व्यस्त समय की अंधेर भरी त्रासद घड़ी में ये विचार शीतल प्रकाश की तरह शक्ति और ऊर्जा देते हैं।

(लेखक, अंतरराष्ट्रीय महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं। )

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