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मानसून काल ही जल संरक्षण और प्रबंधन के लिए बेहतर विकल्प

The monsoon period is the only time of water conservation and management. The best choice for

(लेखक- ग्रामीण विकास संचार के शोध छात्र हैं)

 

 

बृजेन्द्र कुमार वर्मा,

शोधार्थी, जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग,

बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ।

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गर्मी से राहत पाने के लिए हर कोई जल्द से जल्द मानसून आने की प्रतीक्षा करता है। मानसून पहली बरसात ही लोगों के चहरों पर मुस्कान ला देता है। जितनी प्रतीक्षा बारिश होने के लिए की जाती है, उतनी ही प्रतीक्षा बारिश होन पर उसे संरक्षित एवं उसके संचयन के लिए की जाने लगे। तो आने वाले समय में भारत को पानी की किल्लत से जूझना नहीं पड़ेगा। भारत में मानसून दस्तक दे चुका है, कई राज्यों में तो बाढ़ आ चुकी है, लेकिन कुछ राज्य बारिश को तरस रहे हैं। हर स्थिति में किसानों की हालत खराब है। भारत में कुल पानी की खपत में सर्वाधिक उपयोग कृषि में ही होता है। ऐसे में मुद्दा जल संरक्षण का आता है। अर्थात यदि जल संरक्षण पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो मानसून की इन दोनों ही स्थितियों से आसानी से निबटा जा सकता है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो आंकड़ों के अनुसार वार्षिक जल उपलब्धता लगभग 1999 बिलियन क्यूबिक मीटर है, जिसका संरक्षण नहीं हो पाता और नदियों में और तालाबों या फिर जमीन में नहीं जा पाता, इस वजह से देश के कई भागों में पानी की किल्लत उत्पन्न होती रहती है। यद्यपि होना यह चाहिए कि पानी के असमान वितरण पर काम किया जाए, लेकिन सीमित भंडारण क्षमता और अंतर बेसिन स्थानांतरण की कठिनाइयों के कारण ऐसा नहीं हो पाता, जबकि जल परिवहन और उपयोग दक्षता में सुधार करना आवश्यक हो गया है।

1947 में भारत की स्वतंत्रता के समय जब देश का विभाजन हुआ, तो भारत गरीबी से तो जूझ ही रहा था, कि पाकिस्तान को बंटवारे में सिंचाई की जमीन मिल गयी और ढेर सारा पानी का लाभ भी। इसलिए पश्चिमी भारत के लिए कृषि की कठिनाइयां और भी बढ़ गयी। ऐसे में जल संसाधनों का समुचित उपयोग करना नितांत आवश्यक हो गया। यही कारण रहा कि भारत सरकार ने सिंचाई को पंचवर्षीय योजनाओं में स्थान दिया और सिंचाई परियोजनाएं संचालित की गयीं। पहली पंचवर्षीय योजना में बड़े और मध्य सिंचाई क्षेत्र में वार्षिक परिव्यय 376 करोड़ था, वह 11वीं पंचवर्षीय योजना तक आते आते बढ़कर 165000 करोड़ रुपए हो गया। जल संरक्षण और जल प्रबंधन के लिए भारत सरकार ने कई प्रयास किए हैं। जहां भारत में 1950 तक लगभग 380 बड़े बांध थे, वहीं 50 वर्षों में वर्ष 2000 आते आते बांधों की संख्या बढ़कर 3900 हो गई। यह सुनने में अच्छा जान पड़ता है, परंतु कृषि क्षेत्र के लिए यह न्यायोचित स्थिति नहीं कही जा सकती।

सिंचाई में उपयोग होने वाले पानी की बात करें तो कुल जल खपत का 91 फीसदी हिस्सा कृषि में खर्च होता है, शेष 7 फीसदी घरेलू कार्यां और शेष 2 फीसदी औद्योगिक क्षेत्र में। कृषि की बात करें तो 140 मिलियन हेक्टेयर के कुल बोए गए क्षेत्र में से मात्र 68 मिलियन हेक्टेयर की ही सिंचाई हो पाती है, शेष वर्षा पर निर्भर रहता है। इतना ही नहीं, इस 68 मिलियन हेक्टेयर में चावल और गन्ना 31 मिलियन हेक्टेयर में और गेहूं 28 मिलियन हेक्टेयर में आते हैं, अर्थात ये तीन फसलें ही 59 मिलियन हेक्टेयर सिंचाई का ले लेते हैं।

इस तर्क से नकारा नहीं जा सकता कि कृषि में जल प्रबंधन की कमी देखी गयी है। नहरों से सिंचाई का असमान वितरण है। सिंचाई की निगरानी न करना भी कारण है। सिंचाई में बेहिसाब पानी का दुरुपयोग भी होता है। जहां पानी की कमी है, वहां अधिक पानी की फसलों का बोया जाना भी गलत है। ऐसे में साफ कहा जा सकता है कि प्रशासन को गंभीर होकर सिंचाई कार्यों में हस्तक्षेप एवं निकरानी करनी होगी। भारत सरकार ने सिंचाई योजनाओं की शरुआत बहुत पहले ही कर दी। यदि सिंचाई के उत्तम तरीकों को अपना लिया जाए तो लाभ होगा। सूक्ष्म सिंचाई के प्रभाव का आकलन करने के लिए कृषि सहकारिता और किसान कल्याण विभाग द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि भूजल एवं सिंचाई के उत्तम तरीकों को अपनाया जाए तो सिंचाई लागत 20 से 50 प्रतिशत तक कम हो जाती है, सब्जियों की औसत उत्पादकता में कम से कम 40 प्रतिशत की वृद्धि होती है, साथ ही उर्वरक में 7 से 42 प्रतिशत तक बचत होती है और किसान की आय में लगभग औसत 48.5 प्रतिशत की वृद्धि होती सकती है। फिलहाल केवल 14.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र सूक्ष्म सिंचाई के तहत सिंचित किया जा रहा है, जिसमें से पिछले 7 वर्षों में 6.7 मिलियन हेक्टेयर को 2015 से भारत सरकार की प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना पीएमकेएसवाई- प्रति बूंद अधिक फसल के तहत दिए गए व्यापक प्रोत्साहन के परिणाम स्वरुप जोड़ा गया।

संयुक्त राष्ट्र की सतत विकास लक्ष्य रिपोर्ट 2021 के अनुसार विश्व स्तर पर 2.3 अरब लोग जल की कमी वाले देशों में रहते हैं और लगभग 2.0 अरब लोगों की सुरक्षित पेयजल तक पहुंच नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक व्यक्ति को सबसे बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रतिदिन कम से कम 50 लीटर जल की आवश्यकता होती है और जल का स्त्रोत घर में 1 किलोमीटर के भीतर होना चाहिए और संग्रहण लगभग 30 मिनट से अधिक नहीं होना चाहिए।

एक चिंता का विषय यह भी है कि भारत में जितना पानी जमीन में जाता है, उससे अधिक पानी जमीन से निकाला जा रहा है। भूजल उपलब्धता और उपयोग पर केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि मूल्यांकन किए गए कुल क्षेत्र के 16 प्रतिशत में जल की वार्षिक पुनर्भरण मात्रा से वार्षिक निकासी अधिक है। भारत में हर साल औसतन 4000 अरब क्यूबिक मीटर जल वर्षा से प्राप्त होता है, जिसमें से लगभग 1999 बीसीएम नदियों, झीलों, जलाशयों, भूजल और ग्लेशियरों में उपलब्ध जल संसाधन है। लेकिन यहां एक समस्या आती है कि इस जल का वितरण पूरे देश में एक समान नहीं है। मानसून में कुछ नदियों में बाढ़ आ जाती है, तो कुछ नदियां, घाटियां सूखा ग्रस्त हो जाती हैं।

यहां जल प्रबंधन की संपूर्ण दक्षता एवं जल संरक्षण की सर्वोच्च व्यवस्था की आवश्यकता है। ऐसा कर दिया जाए तो बारिश के बाद अधिकतर जल जो समुद्र में चला जाता है, उसे तो रोका ही जा सकता है, साथ ही जल के असमान वितरण में भी सुधार किया जा सकता है। जल संसाधनों का उपयोग मुख्य रूप से सिंचाई, घरेलू और औद्योगिक क्षेत्र में होता है। इनमें भारत में लगभग 91 प्रतिशत जल की खपत सिंचाई के लिए की जाती है, दूसरे देशों में यह आंकड़ा 30 से 70 प्रतिशत के बीच है। भारत में कृषि क्षेत्र लगातार घट रहा है, दूसरी ओर किसान कृषि छोड़कर आय के अन्य स्त्रोत भी ढूंढ रहे हैं, क्योंकि सही समय पर खेतो को खाद न मिलने से, पानी न मिलने से उन्हें नुकसान होता है और फसल बरबाद हो जाती है। सिंचाई को सुलभ और उपलब्ध कर देने से किसानों की कृषि से हट रही इच्छा को परिवर्तित किया जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी यह माना कि जल और स्वच्छता भी किसी मानवाधिकार से कम नहीं। विश्व के विकासशील देशों में विशेषकर पेयजल और स्वच्छता की कमी है। संयुक्त राष्ट्र ने अंतरराष्ट्रीय सहयोग का आह्वान करते हुए कहा कि विकासशील देशों के नागरिकों के लिए सुरक्षित, स्वच्छ, सुलभ और किफायती पेयजल और स्वच्छता प्रदान करने के लिए विकासशील देशों की मदद की जाए। भारत में जनसंख्या लगातार बढ़ रही है, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन से जल तनाव भी बढ़ रहा है। इसको दूर करने के लिए जल संरक्षण व जल प्रबंधन की तकनीकी तंत्र में सुधार की आवश्यकता है एवं उच्च मशीनरी की मांग है। इतना ही नहीं, जल की बर्बादी को कम करने के लिए कठोर कदम भी उठाने होंगे।

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