क्रोध और करुणा के भावों से आप्लावित उस मनीषी के मुख से निकला श्लोक उसे आदि कवि की पदवी से विभूषित कर गया। प्रेमालाप में निमग्न क्रौंच पक्षी के जोड़े पर जब बहेलिये के बाणों का संधान हो रहा था उसी समय कवि परम्परा की प्रवाहमान धारा की उत्पत्ति की पृष्ठभूमि भी तैयार हो रही थी। न क्रोंच पक्षी बाणों से मारा जाता, न बाल्मीकि के कंठों से बहेलिये के लिए श्राप निकलते। श्राप भी गेय श्लोकों के रूप में निकले तो काव्य सृष्टि का आदि पुरुष होने का गौरव महर्षि बाल्मीकि को प्राप्त हो गया। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण ग्रन्थ की रचना की। शास्त्रों के मतानुसार महर्षि वाल्मीकि ने देवर्षि नारद की प्रेरणा से रामायण महाकाव्य की रचना की थी। नारद जी को ब्रह्मा जी ने महर्षि वाल्मीकि के पास भेजा था कि वे बाल्मीकि जी से लोककल्याण के लिए कोई ग्रन्थ की रचना करने के लिए कहें जिसके नायक में धैर्य, करूणा, साहस, क्षमा और सदाचार ये सारे गुण विद्यमान हों। तब भगवान श्री राम को इन समस्त सद्गुणों की खान मानकर महर्षि बाल्मीकि ने उन्हीं को अपना अभीष्ट नायक मानते हुए रामायण ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रंथ की रचना के पीछे लोककल्याण की भावना निहित थी। राम जी के चरित्रों का बाल्मीकि जी ने सुन्दर चित्रण करके रामायण को लोकमानस में स्थापित किया है। बाल्मीकि रामायण को पढकर सनातनधर्मियों में सद्गुणों का विकास होता है। इस ग्रंथ के जरिये मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के जीवन चरित्रों में डुबकी लगाकर जनमानस मर्यादित आचरण की प्रेरणा प्राप्त करते हैं।"रामायण शत कोटि अपारा" के आधार पर रामायण तो करोड़ों लिखी गईं लेकिन बाल्मीकि रामायण ही एक मात्र ऐसी रामायण है जिसको प्रभु श्रीराम ने स्वयं अपने कानों से सुना है।लव और कुश को रामायण महर्षि बाल्मीकि जी की कृपा से कंठस्थ थी।उन्हीं के द्वारा प्रभु श्रीराम ने अपने दरबार में अपनी कथा स्वयं सुनी थी। महर्षि बाल्मीकि त्रेतायुग में राम के समय में थे। वनगमन के समय राम जी महर्षि बाल्मीकि से मिलते हैं। उन्हें प्रणाम कर उनका सम्मान करते हैं।सीता निर्वासन के समय बाल्मीकि के आश्रम में ही मां जानकी अपना समय व्यतीत करती हैं। लव और कुश का प्राकट्य वहीं होता है। सगर्भा स्थिति में जंगल निकाली गईं सीता के अश्रुओं को बाल्मीकि ने अपने कमंडल में समेटकर उसे चौबीस हजार श्लोकों में विस्तारित किया जो रामायण महाकाव्य के रुप में सनातन संस्कृति की अनमोल धरोहर बन गई। बाल्मीकि जी ने संस्कृत भाषा में रामायण की रचना की है। उनकी इस कृति से लुप्त हो चली संस्कृत भाषा के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा है। बाल्मीकि जी की रामायण का प्रचार प्रसार एक मायने में देवभाषा संस्कृत का प्रचार प्रसार भी है। बाल्मीकि जी के जीवन को लेकर भी लोगों में भ्रम की स्थिति बनी रहती है। एक मान्यता के अनुसार बाल्मीकि जी का पहले रत्नाकर नाम था जो खूंखार डाकू था। रास्ते में हर आने जाने वाले का सामान लूट लेना और मार देना उसका काम था। ऐसी कथा आती है कि एक दिन देवर्षि नारद उसी रास्ते से निकले, रत्नाकर ने उन्हें भी बांध लिया और सारा सामान देने के लिए कहा।नारद जी ने कहा कि हम महात्मा हैं हमारे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नही है तब उसने नारद जी से उनके कपड़े ही मांग लिए, उसने कहा कि बिना कुछ ले लिए मैं किसी को जाने नही देता हूँ। नारद ने पूछा तुम इतना पापकर्म क्यों करते हो, उसका जवाब था परिवार के पालन पोषण के लिए, नारद जी ने कहा कि क्या तुम परिवार वालों के लिए पापकर्म करते हो तो तुम्हारे इन पापों का फल भी तुम्हारे परिवार वाले बांटेंगे, जाओ जाकर घर वालों से पूछकर आओ फिर मैं तुमको अपने वस्त्र भी दे दूंगा। घर वालों से जाकर जब रत्नाकर पूंछता है तो उसे सबके द्वारा उत्तर न में मिलता है। उल्टे पांव भागते हुए आकर वह नारद जी के चरणों में गिर जाता है और वहीं से वह चोरी डकैती छोड़ कर साधु बन जाता है। वही रत्नाकर डाकू आगे चलकर बाल्मीकि हो जाते हैं। लेकिन आदि कवि बाल्मीकि जिन्होंने रामायण की रचना की वे पहले डाकू रहे होंगे यह सत्य जान नही पड़ता। बाल्मीकि रामायण के इस प्रसंग से इस बात की पुष्टि होती है। रामायण में कथा आती है कि बाल्मीकि जी सीता जी की पवित्रता को लेकर रामजी के दरबार में कहते हैं कि मैं प्रचेता का पुत्र बाल्मीकि यह घोषणा करता हूँ कि मैंने मन वचन और कर्म से कभी अतीत में न तो असत्य सम्भाषण किया है और जहाँ तक मुझे स्मरण आता है मैंने कोई पापकर्म भी नही किया है। अपने सत्कर्मों को साक्षी बनाकर वे राम जी के सम्मुख माँ जानकी के पातिव्रत धर्म की पवित्रता की बात रखते हैं। बाल्मीकि रामायण के इस प्रसंग के आलोक में यदि अनुसंधान किया जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि बाल्मीकि जैसा तपोनिष्ठ विराट व्यक्तित्व डाकू कैसे रहा होगा क्यों कि रामायण का प्रसंग इस बात का खंडन करता है। उसमें तो स्वयं बाल्मीकि जी ही अपने विषय में कह रहे हैं तो उससे विपरीत सोचना उचित भी नही जान पड़ता है। आजकल सफाईकर्मियों ने भी बाल्मीकि को इसी जाति का बना दिया है।लेकिन सफाईकर्मियों द्वारा जिस बाल्मीकि को अपनी जाति का बतलाया जाता है वे बाल्मीकि दूसरे हैं। आदि कवि महर्षि वाल्मीकि तो कश्यप ऋषि के पुत्र वरुण देव अर्थात प्रचेता के दसवें पुत्र हैं। इसमें कोई आश्चर्य नही कि एक नाम से कई लोग हो सकते हैं। महर्षि बाल्मीकि ने रामायण की रचना करके जगत पर बड़ा उपकार किया है। रामायण महाकाव्य वेदों का ही अवतार माना गया है। वेदों का पठन पाठन अलभ्य है तो रामायण में ही उसके सार तत्वों को उतारकर जगत को सुलभ कराया है। कलियुग में गोस्वामी तुलसीदास जी को बाल्मीकि का अवतार ही विद्वानों ने माना है।दोनों ही रूपों में वे प्रभु राम के निकट रहे। तुलसीकृत रामायण और बाल्मीकिकृत रामायण दोनों के द्वारा ही समाज में समरसता के बीज बोये जा रहे हैं। समाज की विसंगतियों को रोकने का काम बाल्मीकि रूप में रामायण ग्रंथ से जो किया वही तुलसीदास के रूप में वे रामचरित मानस के माध्यम से करते रहे।सनातन धर्मियों द्वारा प्रणम्य हैं महर्षि बाल्मीकि जिन्होंने प्रभु राम की कथा को लोककल्याण का माध्यम बना दिया।