अपनी क्रमागत उन्नति और विकास को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रकृति ने नर और मादा नामक दो जीवों की संरचना किया है। दोनों का एक बराबर संरक्षण और संवर्धन आवश्यक है ताकि यह सृष्टि चलती रहे। प्रकृति की हर श्रेणी में दोनों वर्गों में समानता है लेकिन सबसे ज्यादा असमानता और भेदभाव, सबसे अधिक बुद्धिजीवी और विवेकवान कहे जाने वाले प्राणी मनुष्य में है। मनुष्य वर्ग में पुरुष वर्ग, महिला वर्ग पर हावी है, वह उसे उसका अधिकार नहीं देना चाहता, उसे देवी की संज्ञा देकर धर्म स्थलों में पूजता तो है, लेकिन समाज में आगे बढ़ती हुई देखकर उसे लंगी मारने भी पीछे नहीं रहता।
लगभग तीन दशक से महिला सशक्तिकरण के लिए विभिन्न सामाजिक संगठनों तथा बुद्धजीवियों द्वारा आवाज उठाई जाने लगी थी। देश का हर राजनीतिक दल जब वह सत्ता में होता है तो इसका प्रचार कर वाहवाही लूटने का साधन बनाता है और जब वही दल विपक्ष में होता तो इस मुद्दे को जोर-शोर से सड़क से संसद तक उठाने की कोशिश करता है कि महिलाओं को उनका आधा अधिकार मिलना चाहिए। हकीकत में जब आधी आबादी को उसका आधा हक देने की बारी आती है तो सभी दल कन्नी काटने लग जाते हैं। अब तक का इतिहास रहा है कि महिला सशक्तिकरण के नाम पर विज्ञापनों पर अरबों रुपए खर्च करने वाले देश के राजनीतिक दलों में से किसी भी दल ने चुनावों में आधी सीटों पर महिलाओं को टिकट नहीं दिया है।
देश की सबसे बड़ी पंचायत कहीं जाने वाली संसद में 17वीं लोकसभा के चुनाव में कुल 724 महिलाओं ने अपना भाग्य आजमाया था। जिनमें से 543 सीटों वाली लोकसभा में मात्र 78 महिला सांसद चुनकर आयीं। वर्तमान समय में राज्य सभा में कुल 25 महिला सांसद हैं और दोनों सदनों को मिलाकर 788 सदस्यों में केवल 103 महिला सांसद हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इस बार 403 सीटों में से 47 पर महिला विधायक चुनी गईं हैं। सही मायने में यह संख्या न के बराबर और महिला सशक्तिकरण को आइना दिखा रही है। आबादी के मामले में महिला और पुरुष दोनों लगभग बराबर हैं। वोट देने के मामले में भी महिलाएं पुरुषों के बराबर हैं लेकिन जब जनप्रतिनिधि बनाने की बात आती है तो आधी आबादी की संख्या न के बराबर हो जाती है।
गांधी जी के ग्राम स्वराज की अवधारणा में गांवों की पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी आवश्यक कही गयी है। काफी समय से लोगों की यह मांग रही है कि ग्राम पंचायतों में भी महिलाओं की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी सुनिश्चित की जाय। सरकार ने संविधान में 73वें संशोधन द्वारा 1992 में ग्राम पंचायतों में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया है। सरकार ने भी यहीं पर खेला कर दिया। जब हम उन्हें आधी आबादी कहते हैं, जब उनकी संख्या आधी है तो उन्हें हर राज्य में पचास प्रतिशत आरक्षण क्यों नहीं ? वर्तमान समय में इस आरक्षण को 21 राज्यों ने बढ़ाकार 50 प्रतिशत तक कर दिया है। हमारे देश में लगभग ढ़ाई लाख ग्राम पंचायते हैं जिनके तहत करीब छह लाख गांव आते है। इस बार ग्राम प्रधान के 58,176 पदों में से 31, 212 पदों पर महिलाओं ने जीत दर्ज की है, ब्लॉक प्रमुख के पद पर 447 और जिला पंचायत अध्यक्ष के पद पर 42 महिलाएं चुनाव जीती हैं।
ग्राम पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण देने का मकसद था कि महिलाओं को उनके संख्या बल के हिसाब से बराबरी का हक मिले । जिससे वे अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए ग्राम पंचायतों के विकास को सही दिशा में ले जा सकें, महिला सशक्तिकरण को बल मिले। लेकिन महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करने वाले लोगों की आशा के अनुरूप महिला सरपंच, ब्लाक प्रमुख तथा जिला पंचायत अध्यक्ष खरी नहीं उतरीं, वे मुखौटा साबित हुई हैं।
कुछ महिला सरपंचों ने आगे बढ़कर अपनी ग्रामसभा में विकास के बहुत ही सराहनीय कार्य किए हैं। कुछ ने तो विकास की गंगा बहा दी है, लेकिन ज्यादातर महिला सरपंच अभी भी पर्दे के पीछे ही बैठी हुई हैं। सरपंच की भूमिका में उनके पुत्र, पति, ससुर,जेठ और देवर फर्राटे भर रहे हैं। बहुत सारी महिला सरपंचों को सरकारी योजनाओं की जानकारी न के बराबर है। उनकी ग्रामसभा में उन्हें लोगों ने चुनाव के बाद से किसी सार्वजनिक काम में देखा तक नहीं होगा। हालात यह हैं कि यदि पूरी ग्रामसभा के लोगों को इकट्ठा कर दिया जाय और उनमें से दूसरे गांवों के दस लोगों को दिखाकर उनके गांव का नाम पूंछा जाय तो सरपंच महोदया अपने घर के पुरुष सदस्यों का मुंह देखने लगेंगी।
आज पंचायत राज व्यवस्था में एक नया चलन "प्रतिनिधि " का आ गया है। सांसद और विधायक का प्रतिनिधि तो समझ में आता है लेकिन प्रधान, प्रमुख तथा जिला पंचायत अध्यक्ष के प्रतिनिधि समझ और तर्क से परे है। सांसद और विधायक सत्र में भाग लेने के लिए अपने क्षेत्र से दूर दिल्ली या अपने राज्य की राजधानी में चले जाते हैं तो उनके न रहने पर जनता की समस्याओं को उन तक पहुंचाने के लिए प्रतिनिधि नामित करना ठीक और तर्कसंगत लगता है लेकिन ग्राम प्रधान, ब्लाक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष तो स्थानीय होती हैं वह तो हमेशा अपने घर में मौजूद रहती है। ऐसे में प्रधान प्रतिनिधि, ब्लाक प्रमुख प्रतिनिधि तथा जिला पंचायत अध्यक्ष प्रतिनिधि नामित करने का कोई औचित्य नहीं जान पड़ता।यहां तक कि विकास खण्ड स्तर पर होने वाली मीटिंग, सेमिनार, प्रदर्शनी आदि में भी यह महिला जनप्रतिनिधि नदारद रहती हैं, वहां पर भी उनके घर के पुरुष सदस्य ही उनकी भूमिका में उपस्थित रहते हैं। विकास खंड स्तर के अधिकारी सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं।
यदि इससे बड़े स्तर की बात की जाए तो ब्लाक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष में इससे भी बुरा हाल है। ब्लाक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर जो महिलाएं चुनाव जीतकर आयी हैं वह तो कभी भी विकास खंड, तहसील और जिला स्तर पर दिखाई नहींं पड़तीं। वह इनसे सम्बन्धित प्रशासनिक अधिकारियों के पद, नाम तक नहीं जानतीं है। इनके पति, पुत्र, ससुर, जेठ या देवर गाड़ियों में ब्लाक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष की नाम पट्टिका लगाये हुए हर मोड़ पर दिखाई पड़ जाते हैं। पुलिस और राजस्व विभाग भी इस ग्रामीण सरकार की अवैध कार्य प्रणाली से अनजान नहीं है। पुलिस और राजस्व विभाग के अधिकारी और कर्मचारी भी बिभिन्न कार्यो से गांवों में जाते हैं या इन लोगों को थाने, तहसीलों और जनपद स्तर पर बुलाते हैं, तब भी महिला सरपंच / प्रमुख / जिला पंचायत अध्यक्ष के घर के पुरुष सदस्य ही वहां जाते हैं, लेकिन कभी भी उन पुरुष सदस्यों से यह नहीं पूछा जाता कि प्रधान जी, प्रमुख जी या जिला पंचायत अध्यक्ष जी कहां हैं?
महिला सशक्तिकरण की दिशा में सरकार द्वारा महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए उठाए गए कदमों को महिलाएं ही पीछे खींच रही हैं। इसके लिए हमारे देश में सदियों से चली आ रही पुरुष प्रधान मानसिकता दोषी है। पुरूष आज भी स्वयं को सर्व शक्तिमान मानने की गफलत में जी रहा है। उसे अब भी यकीन नहीं हो रहा है कि महिलाएं हर काम को करने में समर्थ हैं। वह चाहता है कि आरक्षित महिला सीट पर उसकी ही मां/ पत्नी चुनाव लड़ें, चुनाव प्रचार के समय घर के पुरुष महिला को हाथ जोड़कर याचना की मुद्रा में वोट मांगने के लिए घर घर भेजते हैं तब उनको अपनी बेइज्जती महसूस नहीं होती। क्या उस समय उनके घर के पुरुष यह नहीं सोचते हैं कि जिस अधिकार को पाने के लिए उनकी मां/ पत्नी घर घर हाथ जोड़ रही हैैं, उनको अपने कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए इन्ही घरों के चक्कर काटने पड़ेंगे? पुरुष वर्ग कितना चालाक है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब जनता के सामने हाथ जोड़ने और याचना की बारी आती है तो वह अपने घर की महिलाओं को आगे कर देता है और जीत के बाद जब लोगों से प्रधान जी, प्रमुखजी और अध्यक्ष जी जैसे शब्दों से सम्मानित होने की बारी आती है तो खुद आगे हो जाता है।
यदि पंचायतीराज व्यवस्था में प्रतिनिधि के अवैध चलन को न रोका गया तो महिला सशक्तिकरण केवल कागजों में नजर आयेगा। वास्तविक धरातल पर पुरुष वर्ग महिलाओं के हकों पर कुठाराघात कर इतराता घूमता रहेगा। अगर सही मायने में महिलाओं का सशक्तिकरण करना है तो उनके प्रतिनिधित्व के अधिकार को उनके हाथों में पुरुषों से बलात छीनकर उन्हें देना होगा और यह जिम्मेदारी हमारे समाज और सरकार दोनों की है।